हम तसव्वुफ़ ले ख़राबों के मकीं
वक़्त के तूल-ए-आलम-नाक के परवर्दा हैं
एक तारीक अज़ल नूर-ए-अबद से ख़ाली !
हम जो सदियों से चले हैं
तो समझते हैं कि साहिल पाया
अपनी दिन रात की पा-कूबी का हासिल पाया
हम तसव्वुफ़ के निहाँ-ख़ानों में बसने वाले
अपनी पामाली के अफ़्सानों पे हँसने वाले
हम समझते हैं निशान-ए-सर-ए-मंज़िल पाया