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काला निशान / मिथिलेश श्रीवास्तव

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मेरे नाम की टिकट पर
यात्रा करने वाले अधिनायक के मन में
खलबली बराबर मची रहती है

मेरे होने न होने को वह अर्थहीन कहता है
रंगीन सपनों की एक लम्बी फ़िल्म वह बुनता है
और उसके भीतर चीख़ता है
आगे बढ़कर गले लगने का इशारा करता है
मेरी बीच की उँगली पर काले निशान के लगते ही
वह एक ख़ौफ़नाक वीरानगी फैलाकर लोप हो जाता है

देखो वह अधिनायक
कभी अँगूठा दिखाता कभी होंठ बिचकाता
कभी आँखें तरेरता कभी भौहें चढ़ाता
पोस्टर से उतरकर किसी कन्धे पर बैठ जाता
किसी का हाथ मरोड़ता किसी के
सपने के भीतर छेदकर देता
मुझे हरा देने के अपने नेक इरादे से
चला आता है मेरे पास

मैं लिखना चाहता हूँ
काले चेहरे पर गोरे चेहरे चिपका देने से
यह दुनिया गोरों की नहीं हो जाती
शमशानों में पक्के चबूतरे बनवाने
और उन पर अपने नाम दानवीरों की तरह लिखवा लेने से
यह दुनिया मुनाफ़ाख़ोरों की नहीं हो जाती

दुनिया उनकी भी नहीं हो जाती
जिनके सामने खुले हैं कई पिछले दरवाज़े ।

यह दुनिया क्या मैं कह सकता हूँ
कर्ज़ लेकर परिवार पालने वाले पिताओं की है
घर के पिछवाड़े से निकलते
और एक अन्धेरा खोजते मैंने उन्हें देखा है ।