हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर वास विहीन रहें जीवित जन?
मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ\' छाया से रति!!
प्रेम अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापति कर कंकाल, भरे जीवन का प्रांगण?
शव को दें हम रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दे शव का?
गत युग के मृत आदर्शों के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय मे किए हुए घर,
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के है मृतक जीवतों का है ईश्वर!