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स्वप्न / प्रांजल धर

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उस्मान !
यही नाम था उसका,
फटफटिया मोटरसाइकिल
चलाता था मौत के कुँए में;
फिर भी तीन सौ पैंसठ में से
तकरीबन नब्बे दिन तरसता था
भरपेट खाने को,
बेबस था यह कारनामा दिखाने को
क्या बचा यहाँ उसे पाने को ?
उसकी हृदयगति ई०सी०जी० की
पकड़ में नहीं आती ।
आ ही नहीं सकती ।
हीमोग्लोबिन का लेवल
कम है काफ़ी ।
दिन-रात खटकर भी कभी हँसा नहीं
कोई सपना उसकी आँखों में बसा नहीं
ऐसी नाइंसाफ़ी !
क्या करे ? मर-मर कर जिए
या जी-जीकर मरे ?
थोड़े उबाऊ किस्म के ये ‘घटिया’
सवाल, फिलहाल
अनुत्तरित मौन के दायरे में चले गए हैं,
अँग्रेजी में कहें तो बी०ए० पास है,
हिन्दी में ‘स्नातक’।
फिर भी वह स्वप्न तक नहीं देख सकता,
सपनों की फ्रायडीय व्याख्या तो
बड़ी दूर की कौड़ी है !