तो क्या समझूँ, क्या मानूँ
क्या न समझूँ, क्या न मानूँ
क्या यह
कि वह ‘जंगली’ आदमी
जो रात में ओढ़ा गया था
मुझे चादर, मेरे पाँव तक;
वह क्रेता था
मेरी भावनाओं का
सहानुभूतियों का
या विक्रेता था
अपने इरादों का, चालों का
घनचक्कर जालों का
या कि कोई दुश्मन था
पिछले पुराने सालों का ?
किसी अजनबी की सिर्फ़ एक
छोटी-सी सहायता
एक ही साथ
कितने बड़े-बड़े सवाल
खड़े कर जाती है
जिन्हें सोचकर अब
पूरी की पूरी रात
नींद नहीं आती है ।