Last modified on 16 अगस्त 2013, at 11:36

अजनबी / प्रांजल धर

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:36, 16 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रांजल धर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> तो क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तो क्या समझूँ, क्या मानूँ
क्या न समझूँ, क्या न मानूँ
क्या यह
कि वह ‘जंगली’ आदमी
जो रात में ओढ़ा गया था
मुझे चादर, मेरे पाँव तक;
वह क्रेता था
मेरी भावनाओं का
सहानुभूतियों का
या विक्रेता था
अपने इरादों का, चालों का
घनचक्कर जालों का
या कि कोई दुश्मन था
          पिछले पुराने सालों का ?

किसी अजनबी की सिर्फ़ एक
छोटी-सी सहायता
एक ही साथ
कितने बड़े-बड़े सवाल
           खड़े कर जाती है
जिन्हें सोचकर अब
पूरी की पूरी रात
           नींद नहीं आती है ।