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प्रेम / नन्दकिशोर नवल

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मेरे प्राणों के शिखरज्योतिर्मय हो रहे हैं,
मेरे मन के आम्रवन में मलयपवन का संचार हो रहा है,
मेरे अन्तर के शालिक्षेत्र पर चन्दा का अमृत बरस रहा है,
मेरे हृदय की डाली में कोंपलें फूट रही हैं,
मेरी चेतना का क्षितिज परिधान बदल रहा है,
मेरे मानसलोक में एक अपर लोक से किरणें आ रही हैं
कुआ भीतर की पपड़ियाँ तोड़कर
तुम निकल रहे हो,
प्रेम ?