किर्म-ख़ुर्दा काग़ज़ों के ढेर में मदफ़ून है
चाटता है हर्फ़ हर्फ़
दाएरे क़ौसैन सन तारीख़ आदाद ओ शुमार
नुक़्ता ओ ज़ेर ओ ज़बर तश्दीद ओ मद
हासिल-ए-बीनाई ओ ज़ौक़-ए-नज़र
बाँधता है वहम ओ तख़मीन ओ गुमाँ के कुछ हिसार
चूमता है कतबा-ए-लौह-ए-मज़ार
चंद नुक़्ते उड़ गऐ हैं लफ़्ज़ कुछ कावाक हैं
उस की नज़रों में ख़ज़ीना इल्म का ख़ार ओ ख़स ओ ख़ाशाक है
क्या अलाएम क्या रूमूज़ इश्काल अल्फ़ाज़ ओ हुरूफ़
आतिश-ए-तग़ईर के हाथों पिघल जाते हैं सब
वक़्त की भट्टी में तप कर इक नए साँचें में ढल जाते हैं सब
लम्हा लम्हा मुंकशिफ़ होता हुआ सिर्र-ए-हयात
मुंजमिद अल्फ़ाज़ के सीने में अपना नूर फैलाता नहीं
किर्म-ख़ुर्दा काग़ज़ों की लाश में
ख़ूँ अपना दौड़ता नहीं
किर्म-काग़ज़ है हरीफ़-ए-रोज़-ओ-शब
चाटता है फ़ुज़्ल-ए-इल्म-ओ-अदम
और सर अकड़ाए ख़ल्लाक़ान-ए-मअ’नी की तरफ़ ख़ंदा-ब-लब