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ख़ूबसूरत औरतें / निलिम कुमार

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ख़ूबसूरत औरतें सिटी बस से उतरती हैं
और फ़ुटपाथ पर चलती हैं
ख़ूबसूरत औरतें आती हैं तो शहर में
ग्यारह बार बज उठते हैं घण्टे
शहर खोलकर रखता है अपनी सारी खिड़कियाँ
ख़ूबसूरत लड़कियों को देखने के लिए

ऊन की दुकानों में खरीदारी के समय
वे चमक उठती हैं, एक तरह का ताप होता है उनमें
ख़ूबसूरत औरतें कविताएँ नहीं लिखतीं
हफ़्ते में एक बार शैम्पू करती हैं ख़ूबसूरत औरतें
धूप में बैठकर कंघी करती हैं वे
हेमन्त शेष नामक कोई कवि
उनके साथ मालिता* लिखता है
साग-सब्ज़ियाँ ख़ूबसूरत औरतों के झोलों में
चढ़ जाना चाहती हैं
अपने आदमियों के लिए ख़ूबसूरत औरतें बनियान खरीदती हैं

फुटपाथ के किनारे खड़ी होकर गोलगप्पे खाती हैं
शाम से पहले घर लौटने के लिए वे व्यस्त हो उठती हैं ।

भीड़ ठेलकर सिटी बस में चढ़ जाती हैं वे
और तब मुरझा जाता है शहर
शहर ख़ूबसूरत औरतों के पीछे नहीं जा सकता
लेकिन जब चाहें, अपनी मर्ज़ी से
शहर को शिकार बना सकती हैं ख़ूबसूरत औरतें ।

  • मालिता कविताओं का एक प्रकार है।


मूल असमिया से अनुवाद : पापोरी गोस्वामी