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बित्ता भर / मिथिलेश श्रीवास्तव

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उसकी ज़मीन की
बोली लग रही है आज
वह खड़ा है
उसी ज़मीन की डरेर पर
जिसके बित्ते भर इधर या उधर होने के
महज अंदाज़ पर
वह लड़ पड़ता है

किसी का सिर फट जाता है
टूट जाती है किसी की बाँह
कई बित्ते की ज़मीन उसकी ओर से
कई बित्ते की ज़मीन दूसरे की ओर से
डरेर मजबूत करने में गल जाती है
तोड़ दी जाती है सामूहिक हरवाही

एक का बैल बिक जाता है
दूसरे का बैल पागल हो जाता है
एक की ज़मीन बिक चुकी है
पहले ही
दूसरे की ज़मीन की बोली है आज ।