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तुलना / अशोक कुमार शुक्ला

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उस दिन अनजाने ही
तुतने खुद अपनी तुलना
चाँद से की थी
तो सकपका गया था मैं
तुम्हारे अभिमान पर
मुझे नहीं दिख सका था
तुम्हारा गहन विस्तार
पर अब सोचता हूं
सचमुच चाँद जैसी ही हो तुम
वही चमक
वही शीतलता
वही धवलता
और वही बदलता स्वरूप्
आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना
और कल बादलों के पीछे छिपकर
अठखेलियां करना
बादल न भी हों
तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये
अपने स्वरूप को बदल लेना
क्योंकि चेहरा बदलने का
ऐसा हुनर है तुममें
जिसे मैं कभी नहीं पा सकता
क्योंकि तुम्हारी यातनाओं का
दहकता हुआ गोल सूरज हूं मैं