Last modified on 22 अक्टूबर 2013, at 15:08

कशमकश / सलाम मछलीशहरी

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:08, 22 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलाम मछलीशहरी }} {{KKCatNazm}} <poem> ज़िंदगी आ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ज़िंदगी आज भी इक मसअला है
न तख़य्युल
न हक़ीक़त
न फ़रेब-ए-रंगीं
गीत क़ुर्बान किए
शोला-ए-दिल नज्र
नग़्मा-ए-ख़्वाब दिए
फिर भी ये मसअला
गीत मौसम का
हसीं जिस्म का
ख़्वाबों का जिसे
मैं ने और मेरे हम-अस्रों ने गाया था उसे
ज़िंदगी सुनती नहीं
सुन के भी हँस देती है
आग
जज़्बात की आग
दिल-नशीं
शबनमीं
मासूम ख़यालात की आग
अपने क़स्बे की किसी दर्द भरी रात की आग
ज़िंदगी आज भी हर आग पे हँस देती है
कौन जाने कि मिरी तरह हो मर्ग़ूब इसे
दर्द-ए-दिल नश्शा-ए-मय
ज़िंदगी आज भी इक मसअला है
और इसे हल होना है
मैं अगर नज़अ में हूँ
हल तो इसे होना है
दिल ये कहता है कि ले जाए जहाँ रात चलो
और साइंस ये कहती है मिरे साथ लो