Last modified on 25 अक्टूबर 2013, at 07:07

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ / ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:07, 25 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क }} {{KKCatGhazal}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
ये मैं हूँ लौह-ए-शिकस्ता से लफ़्ज़ उठाता हुआ

मकाँ की तंगी ओ तारीकी बेश-तरी थी सो मैं
दिए जलाता हुआ आईने बनाता हुआ

तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ

चराग़ जलते ही इक शहर मुन्कशिफ़ हम पर
और उस के बाद वही शहर डूब जाता हुआ

बस एक ख़्वाब कि उस क़र्या-ए-बदन से हुनूज़
नवाह-ए-दिल तलक इस रास्ता सा आता हुआ