(भाऊ समर्थ की स्मृति में)
राख की तरह
अन्तिम सिगरेट खलास करो
उन्होंने कहा
और वे खूब हँसे
एक निश्छल हँसी
जो दीवार में सेंध लगा सकती थी
उस दिन जबकि श्रद्धा पराते
पढ़ रही थीं उनके अतीत के मधु-क्षण
वह अन्तिम सिगरेट
मैंने जी
मेरे होंठ, मेरी उँगलियां, मेरे फेफड़े
भर गए एक साथ सिगरेट और
हँसी से ।
उनके हाथ सहसा मेरे हाथ में थे
मिलना चाहते होंगे हाथ
उस सिगरेट से
जो उनके खलास होने के बाद
बची रहनी है कुछ दिन और
मैं उस खलास की हुई अन्तिम सिगरेट के एवज में
कहीं भीतर सुलग रहा हूँ
उनके अदृश्य हाथों में
दबा हुआ उनकी निश्छल हँसी वाले होठों से
धीरे-धीरे
मेरी आत्मा झड़ रही है
राख की तरह ।