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घेरा / मोहन कुमार डहेरिया

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वह एक घेरा था

उछालनी थीं बच्चों को उसी के अन्दर गेंदें
विदूषकों को दिखाने थे हास्यबोध के जौहर
नदियों को ढूँढ़ना था समुद्र
(बौना हो जो भले ही उससे)
थी कवियों और कलाकारों को छूट
पर इस तरह
पहुँचे न घेरे की अखण्डता को नुकसान

नहीं थीं पर इतनी ही चीजें
कुछ क्रूरताएँ थीं करुणा को ठीक-ठीक समझने के लिए
निहायत जरूरी
एक अँधेरा तरल दिखती जिसमें देह एकदम पारदर्शी
पहाड़ों के नीचे दबे वे रास्ते तो जोड़ते हैं
हमारी यात्राओं में दृश्य नये
खतरनाक था लेकिन इनका जिक्र
ऐड्स पर विश्वव्यापी सर्वेक्षण
दम तोड़ते शब्दों के लिए, पर
इस घेरे में
खैराती अस्पताल तक न था
वह एक सुखमय जीवन था
घुन-सी खा जानेवाली स्मृतियाँ न थीं उसमें
न मस्तिष्क को थका देने वाले द्वन्द्व
दुख चाहे जितना मर्मान्तक
उपलब्ध थे बाजार में हर तरह के शोक-प्रस्ताव

हो ही चुका था सिद्ध
प्रकृति से बड़ी है मनुष्यों की जरूरत
आत्मा से ऊँचा मशीनों का कद
संस्कृति से मूल्यवान हैं विदेशी मुद्राएँ

अपने उत्कर्ष पर थी एक महान सभ्यता
जगह-जगह आस्था के इस कदर विस्फोट
जन्म ले रहा था कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई अवतार

लोग बोलते तो क्या बोलते घेरे के खिलाफ
डरा देते पुराने तजुर्बेकार
पशुओं को चराते-चराते बजाते बाँसुरी
लाँघ गया था अनजाने में वर्षों पहले इसे एक चरवाहा
पशु तो भागे बिदक कर
एक चट्टान पर उछल कर गिरी बाँसुरी
मूक हो गए स्वर
घूमता आज हाट-दर-हाट चीकट बाल खुजलाता
रचता अन्दर-ही-अन्दर जैसे सदी का सबसे करुण संगीत

बात इतनी ही होती रो-धोकर चुप हो जाता मैं
घेरे के अन्दर बनते और नये घेरे
यहीं से शुरू होता था मेरी बेचैनियों का सिलसिला।