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मेरा 'अपनापन' / अमृता भारती

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मैंने
अपनी उपस्थिति का अर्थ
इन दरख़्तों के बीच
कितनी देर में जाना
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं --
कितनी देर में आई वह आवाज़
उस घर से
जहाँ मेरा न होना
ख़ुद मुझे ही मालूम नहीं था ।

एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि आसपास इतने लोग थे
बातें करते हुए
इधर से उधर, उधर से इधर
मुझे उठाते रखते हुए --

एकान्त अपना कैसे हो सकता था
जबकि
पैरों के व्रण
और हृदय की आग में
लम्बा फ़ासला था --

दरख़्त
जो कटकर भी लकड़ी नहीं बनते
और जमे रहकर भी वृक्ष नहीं
न घर हैं
न जंगल ...

पर अब लगता है
कहीं कोई काट रहा है
मुझे
मेरे अन्दर
अपने एकाकी मौन में

शायद वह --
जिसने एकत्रित किया था
आकाश की थाली में
मेरा 'अपनापन'।