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हैरानगी / हुसैन माजिद

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मैं ख़ुद कि ज़िंदाँ-नुमा शहर से
फ़रार हो कर
बहुत मगन था
कि मैं ख़ला को शिकस्त दे कर
नए जहानों के पा गया हूँ
अमर हुआ हूँ
मगर जो अंदर नज़र पड़ी तो
भरम ये टूटा
जो ख़ुद था पहले वो अब ख़ला था ख़ला से मेरा वजूद अब भी जुड़ा हुआ था