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इन्द्रधनुष / अश्वनी शर्मा

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कितना मुश्किल है
रेगिस्तान में चटख हरा रंग देख पाना
धूसर टीलों के बीच
मटियाला या कलिहाया हरा रंग ले
खेजड़ी खड़ी है
वीतराग संन्यासिन-सी

दूर तक फैले
धूसर मटियाले विस्तार
की एक रूप
उदासी को
कहीं-कहीं
तोड़ता है
कोई रोहिड़ा
लाल नारंगी फूलों से

जब प्रकृति उदास, धूसर, ऊदे
रंगों में लिपटी हो
तभी मानवी जिजीविषा
होती है रंग-बिरंगी
रेत के उदास रंग
नहीं तोड़ पाते
आदमी की रंगीन चाहों को
धूसर रंगों की उदासी
कितना ही उदास कर ले
माहौल को
लाख कोशिशों के बाद भी
नहीं प्रवेश कर पाती
आदमी के मन में

वो भरता है रंग पंचरगे साफे में
सतरंगी ओढ़नी में
या फिर गूंथ लेता है
अनगिनत रंगों का गोरबंद

छोटे-छोटे सितारों जैसे कांच
जड़ देता है बिछौने में
रंग फिर झिलमिलाते हैं
छोटे छोटे सितारों में हजार गुना होकर
लगता है जैसे बिखर गया है सूरज
खंड-खंड होकर
झिलमिला रहे है
हजारों इन्द्रधनुष
आदमी की चाहत के

कितना ही उदास हो
रेगिस्तान का रंग
आदमी का रंग
कभी उदास नहीं होगा
चाहतें ऐसे ही झिलमिलायेंगी
हजारों इन्द्रधनुष-सी