मैं इनद्रधनुष, नभ का अथ -इति छूता
घट पर घट भर - भर कर लाता सावन
मैं ले बादल की ओट अमृत पीता
मैं इन्द्रधनुष, नभ का अथ-इति छूता
मैं सात रंग के सप्त लोक लाया
जग को सुख दे मैंने भी सुख पाया
मुझको निहारकर दृष्टि तृपत होती
स्मिति नभ में सीकर - मोक्तिक बोती
घन -छौनो से शतरंज सजी रहती
भर वर्षा ऋतु मैं हर बाजी जीता
मैं इन्द्रधुनष, नभ का अथ -इति छूता
जब से यह व्योम तना, हँसता आया
सौन्दर्य-प्रेमियों को अतिशय भाया
मायवी मानव का स्पर्श न हो
लख उपग्रहों की झड़़ी, क्षोभ छाया
उनके छूते ही जल जाना होगा
उनके साँचे में ढल जाना होगा
इससे तो अच्छा खो जाऊँ नभ में
ज्यों समा गयी धरती की बाँहों में
निष्कलुष धरा-पुत्री माता सीता
मैं इन्द्रधनुष, नभ का अथ - इति छूता