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कोई उम्मीद लौट कर आए / प्रेमरंजन अनिमेष

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 (ग़ालिब से थोड़ी गुस्‍ताख़ी की हिमाक़त करते हुए)

कोई उम्मीद लौट कर आए
कोई सूरत कहीं नज़र आए

प्यार बनकर जुनूँ चढ़ा सर पर
इक भरोसे-सा दिल के दर आए

सुब्ह के भूले से कोई कह दे
शाम से पहले दोपहर आए

जाता बादल क्यों मुड़ के देखेगा
लौटते वक़्त तो इधर आए

कोई ज़िद ले के घर में बैठा है
उसके दर तक ये रहगुज़र आए

ख़ुशनुमा दिन है साल का पहला
कोई अच्छी भली ख़बर आए

हाथ दिल पर है होंठ होंठों पर
बात कैसे ज़बान पर आए

सर्द आँखों पे धूप का चश्मा
ज़िन्दगी किस तरह नज़र आए

आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
अब यही बात सोच कर आए

उसके आने का दिन कहाँ मंसूब
जाने किस वक़्त और किधर आए

हम वहाँ हैं जहाँ नहीं हम ही
और दुनिया की हर ख़बर आए

ले के सारा जहान फिरता है
तब तो घर में रहे जो घर आए

नींद आए तो किस तरह आख़िर
नींद से पहले आँख भर आए

देखता राह कब मैं मंज़िल की
हूँ सफ़र कि हमसफ़र आए

आदमीयत जहाँ नहीं ज़िन्दा
हो शजर भी तो क्‍या समर आए

वरना जम जाएगा रगों में ही
अब लहू आँख में उतर आए

जान जाने के हर तरफ़ चर्चे
कुछ तो आने की भी ख़बर आए

स्याह मंज़र है दूर तक फैला
सुर्ख़ सूरज कहीं उभर आए

खोलकर नामाबर ही पढ़ लेता
ख़त क्यों 'अनिमेष' लौट कर आए