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फीकी अरहर दाल / शिरीष कुमार मौर्य

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एक बहुत बड़ी गल्‍ला मण्डी है पिपरिया
एक बहुत छोटा शहर है पिपरिया
मेरे बचपन में यह बहुत छोटा क़स्‍बा होता था
वो आत्‍मीय आढ़तें छोटी-छोटी
वो लाजवाब मशहूर अरहर की दाल

वहाँ एक छोटी नगरपालिका है जिसमें मेरा छोटा चाचा
बड़े-बड़े काम करता है
एक लगातार चलती दारू की भट्टी है जिसमें छोटे से बड़ा वाला
दिन-रात दारू पीता
पिपरिया से नागपुर तक डॉक्‍टरों के चक्‍कर लगाता है
उससे बड़ा वाला बुरी तरह कराहता है
पुरानी चोटों
और समकालीन दबदबे के बीच अपनी एक अजीब गरिमा के साथ
वह किसी ‘नीच ट्रेजेडी’ में फँसा है
मैं उसे निकाल नहीं सकता

इस बहुत बड़ी गल्‍ला मण्डी में
झाड़न भी साल भर में लाखों का निकलता है
ठेका-युग में उसके लिए भी दिया जाता है ठेका
ख़ून होते हैं हर साल
झाड़न के लिए

बहुत छोटे शहर के बड़े भविष्‍य की योजनाओं के नाम
नए बन रहे बढ़ रहे सीमान्‍तों पर
तहसील में पुराने गोंडों की ज़मीनों के नए-नए दाखिल-खारिज सामने आते हैं
रेलवे लाइन पर मिली है लाश –- यह एक स्‍थाई समाचार है

चोरी-छिनैती करते आवारा छोकरे स्‍मैक पीते हैं जिसे आम बोलचाल में
पाउडर कहा जाता है

मैं पिपरिया नहीं जाता
कभी-कभी बरसों पहले गुज़र गई दादी के घर जाता हूँ
मुझे वो घर नहीं मिलता
एक बहुत छोटा शहर मिलता है

मेरे अर्जित किए हुए पहाड़ी सुकून में
पत्‍नी बनाती है कभी धुली तो कभी छिलके वाली मूंग दाल
कभी उड़द मसाले में छौंकी हुई शानदार
मसूर भी बनती है मक्‍खन के साथ
जिसे इसी मुँह से खाता हूँ
कभी राजमा
भट्ट की चुड़कानी
कभी स्‍वादिष्‍ट रस-भात

किसी दोपहर बनती है अरहर
पहला निवाला तोड़ते ही मुझे आता है याद
कि जीवन में पिपरिया उतना ही बच गया है
जितनी भोजन में उत्‍तर की यह
फीकी अरहर दाल