Last modified on 6 जनवरी 2014, at 12:08

बातें हर दौर की / गुलाब सिंह

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:08, 6 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब सिंह |संग्रह=बाँस-वन और बाँ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आम हुए श्रीमान
कलँगी चमकी बौर की।

हर अँखुआ
हँसने को
बेबस बेचैन हुआ,
सोच रहा आदमी
मौसम क्यों-
मैं न हुआ?

कब आएगी अपनी
यह तो बारी और की।

धन खेतों में
न हँसे
पान के बरेजों में,
जेबों में जिए
कभी
गलतियों गुरेजों में,

फागों बिन होली
बिन रागों गनगौर की।

नदियों के नाम
मिले
रेत के उलाहने,
पानी के अर्थ खुले
बूँदों के सामने,

ऋतुएँ तो ले आतीं
बातें हर दौर की।