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चितावणी का अंग / कबीर

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`कबीर' नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ ।
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥1॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं-- अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम । फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ? कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, बिगड़ी बात को बना लेने का

जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि ।
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥2॥

भावार्थ - पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर, और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे । वे अपने जीवन की बाजी हार गये । इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया।

इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़ै बिछोह ।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥3॥

भावार्थ - एक दिन ऐसा आयगा ही, जब सबसे बिछुड़ जाना होगा । तब ये बड़े-बड़े राजा और छत्र-धारी राणा क्यों सचेत नहीं हो जाते ? कभी-न-कभी अचानक आ जाने वाले उस दिन को वे क्यों याद नहीं कर रहे ?

`कबीर' कहा गरबियौ, काल गहै कर केस ।
ना जाणै कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस ॥4॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं -यह गर्व कैसा,जबकि काल ने तुम्हारी चोटी को पकड़ रखा है? कौन जाने वह तुम्हें कहाँ और कब मार देगा ! पता नहीं कि तुम्हारे घर में ही, या कहीं परदेश में ।

बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।
आधा-परधा ऊबरे, चेति सकै तो चेति ॥5॥

भावार्थ - खेत एकदम खुला पड़ा है, रखवाला कोई भी नहीं । चिड़ियों ने बहुत कुछ उसे चुग लिया है । चेत सके तो अब भी चेत जा, जाग जा , जिससे कि आधा-परधा जो भी रह गया हो, वह बच जाय ।

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।
इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥6॥

भावार्थ - हमने यहाँ आकर क्या किया ? और साईं के दरबार में जाकर क्या कहेंगे ? न तो यहाँ के हुए और न वहाँ के ही - दोनों ही ठौर बिगाड़ बैठे । मूल भी गवाँकर इस बाजार से अब हम बिदा ले रहे हैं ।

`कबीर' केवल राम की, तू जिनि छाँड़े ओट ।
घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूं, घणी सहै सिर चोट ॥7॥

भावार्थ - कबीर कहते हैं, चेतावनी देते हुए - राम की ओट को तू मत छोड़, केवल यही तो एक ओट है । इसे छोड़ दिया तो तेरी वही गति होगी, जो लोहे की होती है , हथौड़े और निहाई के बीच आकर तेरे सिर पर चोट-पर-चोट पड़ेगी । उन चोटों से यह ओट ही तुझे बचा सकती है ।

उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं ।
एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥8॥

भावार्थ - बढ़िया उजले कपड़े उन्होंने पहन रखे हैं, और पान-सुपारी खाकर मुँह लाल कर लिया है अपना । पर यह साज-सिंगार अन्त में बचा नहीं सकेगा, जबकि यमदूत बाँधकर ले जायंगे । उस दिन केवल हरि का नाम ही यम-बंधन से छुड़ा सकेगा ।

नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिकाइ ।
गाहक राजा राम है, और न नेड़ा आइ ॥9॥

भावार्थ - खूब चित्त लगाकर महीन-से-महीन सूत तू चरखे पर कात, वह बड़े महँगे मोल बिकेगा । लेकिन उसका गाहक तो केवल राम है , कोई दूसरा उसका खरीदार पास फटकने का नहीं ।

मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि ।
कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि ॥10॥

भावार्थ - यह मैं -मैं बहुत बड़ी बला है । इससे निकलकर भाग सको तो भाग जाओ । अरी सखी, रुई में आग को लपेटकर तू कबतक रख सकेगी ? [राग की आग को चतुराई से ढककर भी छिपाया और बुझाया नहीं जा सकता ।]