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आज रात / जीवनानंद दास

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अच्छा होता, होते तुम, आज की रात यहाँ — करते हम-तुम
बातें — पेड़, हवा, घास और तारों के बीच बैठ ।
जाना है मैंने पर, हो कर उन नियमों से,
सारे संवेग सोच हैं जिनसे बँधे हुए :
भारत या चीन, लन्दन या न्यूयार्क — किसी जगह ;
रहस्य आज रात का मृत सब मैमथों का —
है कितना नियमाधीन — अन्तत: ।

इस क्षण कहा~म हो तुम
कौन सा पासा है हाथ में ;
— पूछो मत ; पूछना नहीं है अच्छा सब कुछ ।

जिन शामों सुबहों नदियों तारों को जाना है
मैंने गहराई में, उन्हीं में है वह; जो है
जानने के लिए !

(यह कविता ’बेला अबेला कालबेला’ संग्रह से)