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स्मारक / अलेक्सान्दर कुशनेर

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छोटी-सी कौम को बहुत पसन्द हैं अपने स्‍मारक ।
उसके छोटे-छोटे उद्यान
भरे होते हैं काँस्‍य या प्रस्‍तर प्रतिमाओं से ।
कितनी शुक्रगुजार है यह कौम !
कितनी इज्ज़त है उसके हृदय में
अपने अल्पज्ञात जीव-वैज्ञानिकों, लेखकों और चिकित्‍सकों के लिए !
इसके विपरीत हमारे यहाँ
पेड़ों की घनी छाया के नीचे
सिर्फ़ सरसराहट रहती है हवाओं की
या तारों का चमकना अपनी चिन्ताओं और आशाओं के साथ ।

मुझे भी लगता है यह जगह
उपयुक्‍त नहीं है ऊँची आवाज़ करते ताँबे या चमकीले पत्‍थर के लिए ।
सबके लिए तो स्‍मारक बनाए नहीं जा सकते
न ही किसी के पास ठीक से देखने के लिए फ़ुरसत,
और कितना ख़र्च होता है उन पर
यह बात भी बताई नहीं जा सकती हर किसी को ।

कोट की उठती-गिरती पूँछों के साथ
धीमी चाल से चलती हुई-सी मुद्रा में खड़ी प्रतिमाओं में
कैसे जान फूँक सकती है कोई छाया ?
वही बोझिल आत्‍मविश्‍वास भर सकती हैं क्‍या उनमें
जिसके चलते शायद हम खो बैठे हैं अपनी ही आत्‍मा ?