Last modified on 18 फ़रवरी 2014, at 13:04

कालान्तर / फ़्रेडरिक होल्डरलिन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 18 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़्रेडरिक होल्डरलिन |अनुवादक=अम...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कैशोर्य के उन दिनों में मैं
सुबह की ख़ुशियों से भर जाता था,
पर शामों में रुदन ही रुदन था ;
अब, जबकि मैं बूढ़ा हूँ
हर दिन उगता है
शंकाओं से आच्छन्न, तो भी
इसकी सन्ध्याएँ पावन हैं,
शान्त और प्रसन्न ।