Last modified on 25 फ़रवरी 2014, at 12:41

सूर्योदय / बरीस पास्तेरनाक

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:41, 25 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बरीस पास्तेरनाक |अनुवादक=अमृता भ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम सब कुछ थे मेरी नियति में ।
तब आया युद्ध, विनाश ।
लम्बे, बहुत लम्बे समय तक,
तुम्हारा कोई समाचार, कोई चिह्न नहीं था ।

इन सब बरसों के बाद,
तुम्हारी आवाज़ ने फिर मुझे व्याकुल कर दिया ।
पूरी रात मैंने तुम्हारा ’इच्छा-पत्र’ पढ़ा ।
यह मूर्छा से होश में आने की तरह था ।

मैं लोगों के बीच होना चाहता हूँ,
भीड़ में, इसकी सुबह की हलचल में ।
मैं तैयार हूँ हर चीज़ को टुकड़े-टुकड़े कर देने के लिए
और उन्हें पूरी तरह पराजित कर देने के लिए ।

और मैं सीढ़ियों से नीचे दौड़ता हूँ
मानो पहली बार आ रहा हूँ
सुनसान पटरियों वाली
इन बर्फ़ीली सड़कों पर ।

चारों तरफ़ बत्तियाँ हैं, सामान्यता है, लोग उठ रहे हैं,
चाय पी रहे हैं, ट्राम की तरफ़ दौड़ रहे हैं ।
कुछ ही मिनटों के अन्तराल में
शहर पहचानने योग्य नहीं रहता ।

बर्फ़ीला तूफ़ान हिमपात की मोटी परतों से
एक जाल बुनता है द्वार के पार ।
वे दौड़ पड़ते हैं समय पर होने के लिए,
अपना आधा भोजन छोड़कर, अपनी चाय छोड़कर ।

मैं उनमें से हर एक के लिए महसूस करता हूँ
मानो मैं उनकी त्वचा में ही था,
मैं पिघलती बर्फ़ के साथ पिघलता हूँ
मैं सुबह के साथ कठोर हो उठता हूँ ।

मुझ में लोग हैं बिना नामों के,
बच्चे, घरघुस्से मनुष्य, वृक्ष ।
इन सबने मुझे जीत लिया है
और यही मेरी एकमात्र विजय है ।