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गुल्लक / हरीशचन्द्र पाण्डे

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मिटटी का है
हाथ से छूटा नहीं की
                            टूटा
सबसे कमजोर निर्मिती है जो
उसी के भीतर बसे हैं बच्चों के प्राण

बच्चे जब दोनों हाथों के बीच ले कर बजाते हैं इसे
तो पैसों भरा एक ग्लोब बजने लगता है

कभी कभी मोर्चा हार रहे माँ बाप के सामने बच्चे
इन्हें ले कर भामाशाह बन कर खड़े हो जाते हैं

जब मदद के सारे स्रोत हाथ खड़ा कर देते हैं
जब कर्ज़ का मतलब भद्दी ग़ाली हो जाता है
अपने-अपने गुल्लक लिए खड़े हो जाते हैं नन्हें
जैसे दुनिया के सारे कर्ज़ इसी से पट जाएँगे

ये वही गुल्लक हैं
जिसमें पड़ते खड़े सिक्के की खनक सीधे उनकी आत्मा तक पहुँचती है
जिन्हें नींद में भी हेरती रहती हैं उनकी उँगुलियाँ
जिन्हें फूटना था भविष्य में गले तक भरा हुआ
वही बच्चे निर्मम हो कर फ़ोड़ने लगे हैं इन्हें... ...

और अब जब छँट गए हैं संकट के बादल
वही चक्रवृद्धि निगाह से देखने लगे हैं माँ-बाप को
मन्द-मन्द मुस्कराते

किसी कुम्हार से पूछा जा सकता है
इस वक्त कुल कितने गुल्लक होंगे देश भर में
कितने चाक पर आकार ले रहे होंगे
कितने आँवों पर तप रहे होंगे
और कितनी मिटटी गुँथी जा रही होगी उनके लिए

पर जो चीज़ बनते-बनते फूटती भी रहती है
उसकी संख्या का क्या हिसाब
किसी स्टॉक एक्सचेंज में भी तो सूचीबद्ध नहीं हैं ये
कि कोई दलाल उछल-उछल कर बताता इनके बढ़ते गिरते दाम

मिटटी के हैं ये
हाथ से छूटे नहीं कि
                     टूटे
पर इतना तो कहा ही जा सकता है किसी कुम्हार के हवाले से
दुनिया से मुखातिब हो कर
कि ऐ दुनिया वालो !
भले ही कच्चे हों गुल्लक
पर यह बात पक्की है
जहाँ बचपन के पास छोटी-छोटी बचतों के संस्कार नहीं होंगे
वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो
कभी भी भरभरा कर गिर सकती है ।