चिट्ठी पर पता लिखने के बाद आख़िरी में
जब शहर का नाम लिखता हूँ
मुझे उसका पुराना नाम याद आता है
शहर जो सदियों इस नाम से उठा सोकर
धड़का लोगों के दिलों में छुप-चुप
तेज़-धार सा तमाम आँखों में रहा तल्ख़
इच्छाएँ और उपेक्षाएँ दोनों, कहे-बिना-कहे
निकलीं तो सीधे पहुँचीं किनारे इसके
और नावों की तरह यहीं गईं ठहर,
इसमें कई जुबाने अब भी जिन्होंने
नहीं लिया आज तक इसका नया नाम
नाम बदलने वाले इसके करते रहे दावा
चप्पे-चप्पे से पुराने नाम को पौंछ देने का
तुतलाते हुए मैंने इसके नाम के साथ पुराने
बिताया अपना बचपन, बात-बात पर
चिल्लाते हुए गुस्से में, हुआ किशोर
काँच के आगे काटते हुए मूँछ से अपनी
सफ़ेद बाल, एक दिन कहा गया मुझसे यह
कि सम्भालों आज से इसका नया नाम