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चक्रव्यूह / देवी नांगरानी

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लड़ाई लड़ रही हूं मैं भी अपनी
शस्त्र उठाये बिन, खुद को मारकर
जीवन चिता पर लेटे॥
गाँधी का उदाहरण, सत्याग्रह, बहिष्कार
तज देना सब कुछ अपने तन, मन से
ऐसा ही कुछ मैं भी
कर रही हूँ खुद से वादा
अपने अँदर के कुरूक्षेत्र में॥
मैं ही कौरव, मैं ही पाँडव
चक्रव्यूह जो रिश्तों का है
निकलना मुझको ही है तोड़ उन्हें !
पर ये नहीं मैं कर सकती
क्योंकि मैं अर्जुन नहीं हूँ
यही है मान्यता मेरी,
अपने प्यारों का विनाश
नहीं ! नहीं है सँभव
हाँ दूसरा रास्ता जोड़कर
खुद को खुद से मैं
मजबूत करू अब वो जरिया
मेरा तन, एक किला
जिसकी दीवारें मजबूत है
छेदी नहीं जा सकती
क्योंकि
पहरा पुख्ता है
पहरेदार, एक नहीं है पाँच
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार
व वासना के मँडराते भँवरे
जो स्वास में भरकर अपने अँदर लेती हूँ
हर उस वासना को,
जो आँख दिखाती है
कान सुनाता है,
उनको अपने भर लेती हूँ
मेरी इच्छा, मेरी अनिच्छा
बेमानी है सब शायद
इसलिये कि, मैं अकेली,
इनसे नहीं लड सकती॥
पल भर को तो मैं
कमजोर बन जाती हूँ
मानने लगती हूँ
खुद को अति निर्बल !
पर अब, गीता ज्ञान
का पाठ पढ़ा है, और
जब्त कर लिया है
उस विचार को
"सब अच्छा हो रहा है
जो भी होगा अच्छा होगा
जो गया कल बीत
वो भी अच्छा था "
प्राणी मात्र बन मैं
अच्छा सोच सकती हूं
अच्छा सुन सकती हूँ
अच्छा कर सकती हूँ
यह प्रकृति मेरे बस में है
पर,
मेरे मोह के बँधन है अति प्रबल
और सामने उनके, मैं फिर भी निर्बल !!
अब,
समय आया है मैं तय करूँ
वह राह जो मेरे सफर को मँजिल
तक का अँजाम दे
कहीं पाँव न रुक पाए
कहीं कोई पहरेदार
मेरी राह की रुकावट न बने॥
पर, फिर भी उन्हें जीतना
मुश्किल जरूर है, नामुमकिन नहीं !
मैं निर्बलता के भाव मन से निकाल चुकी हूँ
मैं, सबल, प्रबल और शक्तिमान हूँ
क्योंकि मैं मनुष्य हूँ, चेतना मेरी सुजाग है
जागरण का आवरण ओढ़ लिया है मैंने
कारण जिसके, मैं रिश्ते के हर
चक्रव्यूह को छेदकर पार जा सकती हूँ॥
सारथी बना लिया है अपने मन को
कभी न वो ही मुझसे, ना ही मैं भी उससे
दूर कभी है रहते
बिना साथ सार्थक नहीं हो सकता
मेरी सोच का सपना
दुनियाँ की हर दीवार को
बिना छेदे, बिना तोड़े उस पार जाना
जहाँ विदेही बनकर मेरा मन
विचरण करता है, सँग मेरे
अपने उस आराध्य के ध्यान में॥