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कचट / हरिऔध

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 क्या न हित-बेलि लहलही होगी।

क्या सकेगा न चैन चित में थम।

हो सवें+गे न क्या भले दिन फल।

क्या सकेंगे न फूल फल अब हम।

साँसतें क्या इसी तरह होंगी।

जायगा सुख न क्या कभी भोगा।

क्या दुखी दिन बदिन बनेंगे ही।

क्या वु+दिन अब सुदिन नहीं होगा।

क्या बचाये न बच सकेगा वु+छ।

क्या चला जायगा हमारा सब।

क्या गिरेंगे इसी तरह दिन दिन।

क्या फिरेंगे न दिन हमारे अब।

कर लगातार भूल पर भूलें।

क्या रहेंगे सदा बने भोले।

क्यों खेले खोखले बना कोई।

क्या खुलेगी न आँख अब खोले।

क्या बुरे से बुरे दुखों को सह।

एड़ियाँ ही घिसा करेंगे हम।

क्या टलेंगे न पीसने वाले।

क्या सदा ही पिसा करेंगे हम।