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अनूठी बातें / हरिऔध

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 जो बहुत बनते हैं उनके पास से।

चाह होती है कि कब वै+से टलें।

जो मिले जी खोल कर, उनके यहाँ।

चाहता है जी कि सिर के बल चलें।

भूल जावे कभी न अपनापन।

जान दे पर न मान को दे, खो।

लोग जिस आँख से तुम्हें देखें।

तुम उसी आँख से उन्हें देखो।

और की खोट देखती बेला।

टकटकी लोग बाँधा देते हैं।

पर कसर देखते समय अपनी।

बेतरह आँख मूँद लेते हैं।

फिर कभी खुलने न पाईं माँद वे।

इस तरह मन के मसोसों से हुईं।

मूँदते ही मूँदते मुख और का।

मदभरी आँखें बहुत सी मुँद गईं।

छोड़ संजीदगी सजे वू+ँचे।

बन गये जब लोहार की वू+ँची।

तो बचा रह सका न ऊँचापन।

आँख भी रह सकी नहीं ऊँची।

कौन बातें बना सका अपनी।

बात बेढंग बढ़ा बढ़ा कर के।

आँख पर चढ़ गया न कौन भला।

आँख अपनी चढ़ा चढ़ा कर के।

बात सुन कर सिखावनों-डूबी।

जो कि है ठीक राह बतलाती।

जब नहीं सूझ बूझ रंग चढ़ा।

तब भला आँख क्यों न चढ़ जाती।

तुम भली चाल सीख लो चलना।

औ भलाई करो भले जो हो।

धूल में मत बटा करो रस्सी।

आँख में धूल डालते क्यों हो।

ठीक वैसा न मान ले उस को।

जो कि जैसे लिबास में दीखे।

जी अगर है टटोल लेना तो।

देखना आँख खोल कर सीखे।

चाह जो यह हैं कि हाथों से पले।

पेड़ पौधों से अनूठे फल चखें।

तो जिसे हैं आँख में रखते सदा।

चाहिए हम आँख भी उस पर रखें।

जो न चित का नित बना चाकर रहा।

बान चितवन के नहीं जिस पर चले।

है जिसे पैसा नचा पाता नहीं।

आ सका ऐसा न आँखों के तले।

किस तरह से सँभल सकेंगे वे।

अपने को जो नहीं सँभालेंगे।

क्यों न खो देंगे आँख का तिल वे।

आँख का तेल जो निकालेंगे।

सधा सकेगा काम तब वै+से भला।

हम करेंगे साधाने में जब कसर।

काम आयेंगी नहीं चालाकियाँ।

जब करेंगे काम आँखें बंद कर।

जब कि चालाकी न चालाकी रही।

आँख उस पर तब न क्यों दी जायगी।

लोग उँगली क्यों उठायेंगे न तब।

जब कि उँगली आँख में की जायगी।

है खटकती किसे नहीं दुनिया।

लग सके कब खुटाइयों के पते।

तब परखते अगर परख वाली।

आँख के सामने उसे रखते।

क्यों कहें कंगालपन को भी कभी।

हैं खुली आँखें हमारी जाँचती।

सामने जो वे न नाचें आँख के।

भूख से है आँख जिन की नाचती।

खिल उठें देख चापलूसों को।

देख बेलौस को वु+ढ़ें काँखें।

क्यों भला हम बिगड़ न जायेंगे।

जब हमारी बिगड़ गईं आँखें।

है जिसे सूझ ही नहीं उस की।

क्या करेंगे उघार कर आँखें।

है परसता जहाँ ऍंधोरा वाँ।

क्या करेंगे पसार कर आँखें।

ऊब जाओ न उलझनों में पड़।

जंगलों को ख्रगाल कर देखो।

डाल दो हाथ पाँव मत अपना।

आँख में आँख डाल कर देखो।

ताक में रात रात भर न रहें।

सूइयाँ डालने से मुँह मोड़ें।

और की आँख फोड़ देने को।

आँख अपनी कभी न हम फोड़ें।

तब टले तो हम कहीं से क्या टले।

डाँट बतला कर अगर टाला गया।

तो लगेगी हाथ मलने आबरू।

हाथ गरदन पर अगर डाला गया।

है सदा काम ढंग से निकला।

काम बेढंगपन न देगा कर।

चाह रख कर किसी भलाई को।

क्यों भला हों सवार गरदन पर।

बेहयाई, बहँक बनावट ने।

कस किसे नहिं दिया शिकंजे में।

हित-ललक से भरी लगावट ने।

कर लिया है किसी न पंजे में।

फल बहुत ही दूर, छाया वु+छ नहीं।

क्यों भला हम इस तरह के ताड़ हों।

आदमी हों और हों हित से भरे।

क्यों न मूठी भर हमारे हाड़ हों।

काम आये, लोक के हित में लगे।

ठीक पानी की तरह दुख में बहे।

धान रहा पर-हाथ में तो क्या रहा।

रह सके तो हाथ में अपने रहे।

बीनना सीना, परोना, कातना।

गूँधाना, लिखना न आता है कहे।

काम की यह बात है, हर काम में।

बैठता है हाथ बैठाते रहे।

जाय जिस से वु+ल कसर जी की निकल।

बोलने वाले बचन वे बोल दें।

खोलनेवाले अगर खोले खुले।

तो किवाड़े छातियों के खोल दें।

दूसरा कोई अधाम वैसा नहीं।

पाप जिससे हैं करातीं पूरियाँ।

वे पतित हैं पेट पापी के लिए।

छातियों में भोंक दें जो छूरियाँ।

रह सका काम का सुखी सुन्दर।

कौन सा अंग दुख ऍंगेजे पर।

भूल है जल गरम अगर छिड़कें।

फूल जैसे नरम कलेजे पर।

इस जगत का जीव वह है ही नहीं।

लुट गये धान जी लटा जिस का नहीं।

हाथ की पूँजी गँवा, पड़ टूट में।

है कलेजा टूटता किस का नहीं।

बेतरह बेधा बेधा क्यों देवे।

भेद है जीभ और नेजे में।

बात से छेद छेद कर के क्यों।

छेद कर दे किसी कलेजे में।

पढ़ गये हाथ आ गया पारस।

कढ़ गये गुन गया ऍंगेजा है।

चढ़ गये चाव चित गया चढ़ बढ़।

बढ़ गये बढ़ गया कलेजा है।

मिल न पाया मान मनमानी हुई।

मोतियों के चूर का चूना हुआ।

दिलचलों के सामने बन दिलचले।

दून की ले दिल अगर दूना हुआ।

रंग उस का बहुत निराला है।

हम न उस रंग को बदल देवें।

फूल से वह कहीं मुलायम है।

चाहिए दिल न मल मसल देवें।

हम उसे ठीक ठीक ही रक्खें।

औ उसे ठीक राह बतलावें।

चाहिए दिल उड़ा उड़ा न फिरे।

दिल पकड़ लें अगर पकड़ पावें।

प्रभु महँक से हैं उसी के रीझते।

पी उसी का रस रसिक भौंरे जिए।

चार फल केवल उसी से मिल सके।

तोड़ते दिल-फूल को हैं किसलिए।

है निराली प्रभु-कला जिस में बसी।

वह निराला आइना है फूटता।

टूटती है प्यार की अनमोल कल।

तोड़ने से दिल अगर है टूटता।

जीभ को कस में रखें, काया कसें।

क्यों लहू कर के किसी का सुख लहें।

मारना जी का बहुत ही है बुरा।

जी न मारें मारते जी को रहें।

काम करते हैं मकर कर किसलिए।

इस मकर से प्यार प्यारा है कहीं।

क्यों हमारा जी गिना जी जायगा।

हम अगर जी को समझते जी नहीं।

बात बनती नहीं बचन से ही।

काम सधा कब सका सदा धान से।

मानते क्यों न मानने वाले।

वे मनाये गये नहीं मन से।

क्या बचन मीठे नहीं हम बोलते।

क्या हमारे पास सुन्दर तन नहीं।

पर भला वै+से रिझायें हम उसे।

रीझ जिस का रीझ पाता मन नहीं।

बिष-बटी होवे न क्यों हीरे जड़ी।

जान उसको खा, गई खोई नहीं।

हाथ जो आ जाय सोने की छुरी।

पेट तो है मारता कोई नहीं।

हैं वु+दिन में किसे मिले मेवे।

जो मिले, आँख मूँद कर खा लें।

भूख में साग पात क्यों देखे।

जो सके डाल पेट में डालें।

चाहिए सारे बखेड़े दूर कर।

बात आपस की बिठाने को उठे।

आँख उठती दीन दुखियों पर रहे।

पाँव गिरतों के उठाने को उठे।

भक्ति अंधी भली नहीं होती।

भाव होते भले नहीं लूँजे।

है अगर पाँव पूजना ही तो।

पूजने जोग पाँव ही पूजे।