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निघरघट / हरिऔध

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 आज दिन तो अनेक ऊँचों की।

रोटियाँ नाम बेंच हैं सिंकती।

क्या कहें बात बेहयाई की।

हैं खुले आम बेटियाँ बिकती।

हैं कहीं बेढंगियाँ ऐसी नहीं।

हैं भला हम से कहाँ पर नीच नर।

लूटते हैं सेंत मेंत हमें सभी।

छूटते हैं खेत बेटी बेंच कर।

किस तरह हम को भला वु+छ सूझता।

क्योंकि हम में आँख की ही है कमी।

काठ के पुतले कहाँ हम से मिले।

बेंचते हैं आँख की पुतली हमीं।

कर मकर मन के मसोसों के बिना।

जो कभी दामाद को हैं मूसते।

वु+ल बड़ाई के लहू से हाथ रँग।

हैं लहू वे बेटियों का चूसते।

आज कितनी ही हमारी चाह पर।

बेटियाँ बहनें सभी हैं खो रही।

क्या भला देंगे निछावर हम उन्हें।

आप ही वे हैं निछावर हो रही।

बेटियाँ बहनें बिकें धान के लिए।

भाव ऐसा क्यों किसी जी में जगे।

जो लगा दे लात वु+ल की लाज को।

लत बुरी ऐसी न दौलत की लगे।

किस लिए तो पले न बेटी से।

जो दवा पाप - भार से तन हो।

मान का मान तब रखे वै+से।

जब कि पामाल माल से मन हो।