Last modified on 18 मार्च 2014, at 14:42

धर्म की करामात / हरिऔध

Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:42, 18 मार्च 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जब भलाई मिली नहीं उस में।
किस तरह घर भली तरह चलता।
क्यों अँधेरा वहाँ न छा जाता।
धर्म-दिया जहाँ नहीं बलता।

जो कि पुतले बुराइयों के हैं।
क्यों न उन में भलाइयाँ भरता।
देवतापन जिन्हें नहीं छूता।
है उन्हें धर्म देवता करता।

जो रहे छीलते पराया दिल।
क्यों न वे छल-भरे छली होंगे।
जायगा बल बला न बन वैसे।
धर्म-बल से न जो बली होंगे।

है बड़ा ही अमोल वह सौदा।
मतलबों-हाथ जो न पाया बिक।
मूल है धर्म प्यार-पौधो का।
है महल-मेल-जोल का मालिक।

है अँधेरा जहाँ पसरता वहाँ।
धर्म की जोत का सहारा है।
डर-भरी रात की अँधेरी में।
वह चमकता हुआ सितारा है।

धूत-पन-भूत भूतपन भूला।
बच बचाये सकी न बेबाकी।
धर्म के एक दो लगे चाँटे।
भागती है चुड़ैल-चालाकी।

धर्म-जल पाकर अगर पलता नहीं।
तो न सुख-पौधा पनपता दीखता।
बेलि हित की फैलती फबती नहीं।
फूलती फलती नहीं बढ़ती लता।

है जिसे धर्म की गई लग लौ।
हो न उसकी सकी सुरुचि फीकी।
है नहीं डाह डाहती उस को।
है जलाती नहीं जलन जी की।

धर्म देता उसे सहारा है।
जो सहारा कहीं न पाता है।
टूटता जी न टूट सकता है।
दिल गया बैठ वह उठाता है।

बँधा-तदबीर बाँध देने से।
कब न भरपूर भर गये रीते।
ब्योंत कर धर्म के बनाने से।
बन गये लाखहा गये बीते।

धर्म के सच्चे धुरे के सामने।
दाल जग-जंजाल की गलती नहीं।
भूलती है नटखटों की नटखटी।
हैकड़ों की हैकड़ी चलती नहीं।

धर्म उस का रंग देता है बदल।
जाति जो दुख-दलदलों में है फँसी।
बेकसों की बेकसी को चूर कर।
दूर करके बेबसों की बेबसी।

खल नहीं सकता उन्हें खलपन दिखा।
छल नहीं सकता उन्हें कोई छली।
खलबली उन में कभी पड़ती नहीं।
धर्म-बल जिन को बनाता है बली।

किस लिए अंधी न हित-आँखें बनें।
धर्म का दीया गया बाला नहीं।
क्यों न वहाँ अँधेरा-अंधियाला घिरे।
है जहाँ पर धर्म-उजियाला नहीं।

पाप से पेचपाच पचड़ों से।
प्यार के साथ पाक रखती है।
धाक है और धाक से न रही।
धर्म की धाक धाक रखती है।