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जश्न / सुरेन्द्र रघुवंशी

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बेहोशी का पर्याय बन गया जश्न
जैसे कोई असफल और ग़मगीन नायक
नाकामियों से पलायन के लिए
मदिरा के घोड़े जोतकर
विस्मृतियों के रथ पर सवार होकर
छूमन्तर हो जाता है

मंगल पर यान भेजते हुए
याद मत करो कि देश की धरती पर
कितने लोग भूखे सोए

तालियों की गड़गड़ाहट में भूल जाओ
लाचार और विवश लोक-रुदन

याद मत करो बाल-दिवस मनाते हुए
कि कितने बच्चे कचरों के ढेर से बीन रहे हैं कबाड़
कि शारीर का धर्म सबसे पहले पेट का पाठ पढ़ना होता है
इसलिए उनकी जगह स्कूल में खाली रह जाती है
और अब भी उनके बस्ते घर की खूटियों पर भी नहीं टँगे हैं

ग़रीबी की सुरसा नहीं बख़्श रही गाँवों को अब तक
प्रश्न उठाते हुए इनकी तुलना दिल्ली से करने वालों को सबक सिखाओ और शान्ति के नोबेल पुरस्कार के लिए भेजो अपना आवेदन

स्वार्थ और सत्ता के काले शक्तिशाली हाथी पर बैठकर आतंक फैला दो भगदड़ मचा दो
और बता दो कि विद्रोहियों को कैसे कुचल दिया जाता है

जनता के द्वारा दी गई रस्सी से ही जनता के गलों पर बनाते जाओ फन्दे
और मसीहा के लिबास में जश्न में डूबे हुए
भूल जाओ कि तुम अन्यायी हो ।