लगभग एक बरस बीत गया है। मैं लौट आया हूँ
युद्धक्षेत्र में, लौट आया हूँ उनके पास
जो सीख चुके हैं उस्तरे के सामने पंख फैलाना
या-बेहतर स्थिति में -- भौंहों के पास,
जो हैरान है कभी साँझ के आलोक पर
कभी व्यर्थ रक्तपात पर ।
अब यहाँ व्यापार होता है तुम्हारी अस्थियों का,
झुलसी सफलताओं के तमगों का, बुझी मुस्कानों का,
नये भण्डारों के डरावने विचारों का,
षड्यन्त्रों की स्मृतियों और धुले झण्डों पर अनेकों जिस्मों
की छाप का ।
बढ़ती जा रही है लोगों की संख्या
उद्दण्ड वास्तुकला की एक विधा हैं ये खण्डहर,
बहुत अधिक अन्तर नहीं है
हृदय और अँधेरी खाइयों में --
इतना नहीं कि डरने लग जाएँ इससे कि
हमारी कहीं-न-कहीं फिर से मुठभेड़ होगी
अन्धे अण्डों के तरह ।
सुबह-सुबह जब कोई देख नहीं रहा होता तुम्हारा चेहरा
मैं चल देता हूँ पैदल उस स्मारक की ओर
जिसे ढाला गया होता है बोझिल सपनों से ।
जिस पर अंकित होता है शब्द 'विजेता',
पढ़ा जाता है 'बिजूका'
और शाम तक हो जाता है 'बिटका'।