Last modified on 29 नवम्बर 2007, at 21:21

तुम मेरी विधवा आठ बरस से-5 / नाज़िम हिक़मत

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:21, 29 नवम्बर 2007 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: नाज़िम हिक़मत  » संग्रह: चलते फ़िरते ढेले उपजाऊ मिट्टी के
»  तुम मेरी विधवा आठ बरस से-5

पेटी से निकालो वह घाघरा

जिसमें मैंने देखा था तुम्हें पहली बार,

और बालों में लगाओ वह कारनेशन

जो तुम्हें भेजा था मैंने जेल से

चाहे जितना बिखरा, मुरझा चुका हो ।

सँवरो और खिली दिखो

आदमकद वसन्त-सी ।


आज के रोज़ दिखना नहीं चाहिए तुम्हें

खोई-खोई ग़मगीन

किसी हाल में !

आज के दिन

तुम्हें निकलना चाहिए सर ऊँचा किए हुए
गर्वोन्नत
गुज़रना ही चाहिए तुम्हें नाज़िम हिक़मत की
पत्नी की गरिमा से भर के ।