Last modified on 2 अप्रैल 2014, at 14:47

भेद की बातें / हरिऔध

Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:47, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

है उसी एक की झलक सब में।
हम किसे कान कर खड़ा देखें।
तो गड़ेगा न आँख में कोई।
हम अगर दीठ को गड़ा देखें।

एक ही सुर सब सुरों में है रमा।
सोचिये कहिये कहाँ वह दो रहा।
हर घड़ी हर अवसरों पर हर जगह।
हरिगुनों का गान ही है हो रहा।

पेड़ का हर एक पत्ता हर घड़ी।
है नहीं न्यारा हरापन पा रहा।
गुन सको गुन लो सुनो जो सुन सको।
है किसी गुनमान का गुन गा रहा।

हरिगुनों को ये सुबह हैं गा रही।
सुन हुईं वे मस्त कर अठखेलियाँ।
चहचहाती हैं न चिड़ियाँ चाव से।
लहलहाती हैं न उलही बेलियाँ।

छा गया हर एक पत्ते पर समा।
पेड़ सब ने सिर दिया अपना नवा।
खिल उठे सब फूल, चिड़ियाँ गा उठीं।
बह गई कहती हुई हर हर हवा।

है नदी दिन रात कल कल बह रही।
बाँध धुन झरने सभी हैं झर रहे।
हर कलेजे में अजब लहरें उठा।
हरिगुनों का गान ये हैं कर रहे।

चाहिए था कि गुन भरे के गुन।
भाव में ठीक ठीक भर जाते।
पा सके जो न एक गुन भी तो।
क्या रहे बार बार गुन गाते।

क्या हुआ मुँह से सदा हरि हरि कहे।
दूसरों का दुख न जब हरते रहे।
जब दया वाले बने न दया दिखा।
तब दया का गान क्या करते रहे।

उठ दुई का सका कहाँ परदा।
भेद जब तक न भेद का जाना।
एक ही आँख से सदा सब को।
कब नहीं देखता रहा काना।

तह बतह जो कीच है जमती गई।
कीच से कोई उसे कैसे छिले।
तब भला किस भाँत अंधापन टले।
जब किसी अंधो को अंधा ही मिले।

भूल से बच कर भुलावों में फँसी।
काम धंधा छोड़ सतधंधी रही।
सूझ सकता है मगर सूझा नहीं।
बावली दुनिया न कब अंधी रही।

साँस पाते जब बुराई से नहीं।
लाभ क्या तब साँस की साँसत किये।
जब दबाये से नहीं मन ही दबा।
नाक को तब हैं दबाते किस लिए।

उन लयों लहरों सुरों के साथ भर।
रस अछूते प्रेम का जिन से बहे।
कंठ की घंटी बजी जिन की न वे।
कंठ में क्या बाँधते ठाकुर रहे।

रंग में जो प्रेम के डूबे नहीं।
जो न पर-हित की तरंगों में बहे।
किस लिए हरिनाम तो सह साँसतें।
कंठ भर जल में खड़े जपते रहे।

मानता जो मन मनाने से रहे।
लौ लगी हरि से रहे जो हर घड़ी।
तो रहे चाहे कोई कंठा पड़ा।
कंठ में चाहे रहे कंठी पड़ी।

जान जब तक सका नहीं तब तक।
था बना जीव बैल तेली का।
जब सका जान तब जगत सारा।
हो गया आँवला हथेली का।

डूबने हम आप जब दुख में लगे।
सूझ पाया तब गया क्यों दुख दिया।
जान गहराई गुनाहों की सके।
काम जब गहरी निगाहों से लिया।