Last modified on 2 अप्रैल 2014, at 15:04

मन / हरिऔध

Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:04, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

है मनाना या मना करना कठिन।
मन सबों को छोड़ पाता छन नहीं।
तब भला कैसे न मनमानी करे।
है किसी के मान का जब मन नहीं।

काम के सब भले पथों को तज।
फँस गया बार बार भूलों में।
छोड़ फूले फले भले पौधो।
मन भटकता फिरा बबूलों में।

ठान उस ने न कब बुरी ठानी।
कब ठिठक हम गये न ठन गन से।
बैठ पटरी सकी न कपटी से।
कब पटी नटखटी-भरे मन से।

जब गया घर जान सारी बात का।
तब भला कैसे न घरजानी करें।
हैं उसे सामान मनमाने मिले।
मन भला कैसे न मनमानी करे।

संग पासँग है कड़ापन में।
ठोस इस्पात है नहीं ऐसा।
है न वैसा कठोरपन उसमें।
काठ है कब कठोर मन जैसा।

छिन गया आराम दुख दूना हुआ।
कर रहा है रोग सौगुना सितम।
तन गया तन बिन मिला धन धूल में।
पर हुआ मन का कमीनापन न कम।

दे नहीं पेर पीस औरों को।
जल रहें, बन न जाँय ओले हम।
बात जितनी कहें मोलायम हो।
हो न मन की मुलायमीयत कम।

खोलने पर नयन न खुल पाया।
सूझ पाया हमें न पावन थल।
लोकहित जल मिला न मिल कर भी।
धुल न पाया मलीन मन का मल।

है नहीं परवाह सुख दुख की उसे।
जो कि सचमुच जाय बे-परवाह बन।
तब बलंदी और पस्ती क्या रही।
जब करे मस्ती किसी का मस्त मन।

तो उसे प्रेमरंग में रँग दो।
वह सदा रंग है अगर लाता।
लोकहित के लिए न क्यों मचले।
मन अगर है मचल मचल जाता।

प्यास पैसों की उन्हें है जब लगी।
क्यों न तो पानी भरेंगे पनभरे।
जग-विभव जब आँख में है भर रहा।
किस तरह तो मन भरे का मनभरे।

दौड़ने में ठोकरें जिसको लगीं।
वह भला कैसे न मुँह के बल गिरे।
फेर की है बात इस में कौन सी।
जो किये मन फेर कोई मन फिरे।

बैल में बैलपन मिलेगा ही।
क्यों करेगा न छैलपन छैला।
क्यों न तन में हमें मिलेगा मल।
क्यों न होगा मलीन मन मैला।

फूल किसको गूलरों से मिल सके।
फल सरों से है न कोई पा सका।
मोतियों से मिल सका पानी किसे।
कौन मन के मोदकों को खा सका।

है सराबोर सब रसों में वह।
सन सभी भाव में वही सनकी।
खेल नित रंग रंग के दिखला।
रंग लाती तरंग है मन की।

क्यों सकेगा न सुख-बसन जन बुन।
कात हित-सूत तन अगर न थके।
तन सके क्यों न तो अमन ताना।
मन अगर बन अमन-पसंद सके।

बात हित की कब बताती है नहीं।
कब न समझाती बुझाती वह रही।
मान कर बैठे मनाने से खिझे।
मति करे क्या, जो न मन, माने कही।

पत्तियों तक को बहुत सुन्दर बना।
हैं उसी ने ही सजाये बाग बन।
फल उसी से हैं फबीले हो रहे।
फूल फबता है मिले मन की फबन।

हैं उसी में भाव के फूले कमल।
जो सदा सिर पर सुजन सुर के चढ़े।
हैं उपज लहरें उसी में सोहतीं।
सोत रस के मन सरोवर से कढ़े।

हैं उसी के खेल जग के खेल सब।
लोक-कौतुक गोद में उस की पला।
हैं उसी की कल सकल तन की कलें।
सब कलायें एक मन की हैं कला।

मोल वालों में बड़ा अनमोल है।
सामने उस के सकल धन धूल है।
माल है वह सब तरह के माल का।
सब जगत के मूल का मन मूल है।

क्या कहीं भूत का बसेरा है?
भूल है भय अगर कँपाये तन।
तो चढेगा न भूत सिर पर क्यों।
भूत बन जाय जो किसी का मन।

तो बनायेगा बड़ा ही औ गुनी।
औ गुनों से वह अगर होगा भरा।
कौन इतनी है बुराई कर सका।
है बुरे मन सा न बैरी दूसरा।

जायगा कैसे न वह दानव कहा।
जो कि दानवभाव लेकर अवतरा।
देवता कैसे न देवेगा बना।
देवभावों से अगर है मन भरा।

तो यहाँ ही हम नरक में हैं पड़े।
पाप का जी में जमा है जो परा।
स्वर्ग का सुख तो बेलसते हैं यहीं।
है भला मन जो भले भावों भरा।

चाह बैकुंठ की नहीं रखते।
हैं नहीं स्वर्ग की रुचीं राहें।
है यही चाह चाह हरि की हो।
हों चुभी चित्त में भली चाहें।

छोड़ खलपन अगर नहीं पाता।
पर-विभव क्यों न तो उसे खलता।
डाह जब है जला रही उस को।
मन बिना आग क्यों न तो जलता।

क्यों न बनते सुहावना सोना।
लाग कर लौहपन अगर खोते।
पर नहीं कर सके रसायन हम।
पास पारस समान मन होते।

किस तरह जी में जगह देते उसे।
जी बहुत जिस से सदा ऊबा रहा।
मान वालों से मिले तो मान क्यों।
मन अगर अभिमान में डूबा रहा।

बार घर बार को न तो समझें।
जो न जी में बिकार हो थमता।
तो न बैठें रमा रमा धूनी।
मन रहे जो न राम में रमता।

तो तजा घर बना बनाया क्यों।
घर बनाया गया अगर बन में।
आप को संत मान क्यों बैठे।
मान अपमान है अगर मन में।

तब लगाया भभूत क्या तन पर।
जो सके मोह-भूत को न भगा।
तो किया क्या बसन रँगा कर के।
मन अगर राम-रंग में न रँगा।

घर बसे और क्या बसे बन में।
बासना जो बनी रहे बस में।
बेकसे और क्या कसे काया।
मन किसी का अगर रहे कस में।

ढोंग हैं लोक साधनायें सब।
जी हमारा अगर न हो सुलझा।
उलझनें छोड़ और क्या हैं वे।
मन कहीं और हो अगर उलझा।

एक को पूछता नहीं कोई।
एक आधार प्रेमधन का है।
एक मन है न एक मन का भी।
एक मन एक लाख मन का है।

फेन से भी है बहुत हलका वही।
मेरु से भारी वही है बन सका।
मान किस में है कि मन को तौल ले।
जब सका तब तौल मन को मन सका।

मन न हो तो जहान है ही क्या।
मन रहे है जहान का नाता।
मन सधो क्या सधा नहीं साधो।
मन बाँधो है जहान बँध जाता।

डूब कर के रंगतों में प्यार की।
साथ ही दो फूल अलबेले खिले।
मेल कर अनमोल दो तन बन गये।
मोल मन का बढ़ गया दो मन मिले।

मन उबारे से उबरते हैं सभी।
कौन तारे से नहीं मन के तरा।
मन सुधारे ही सुधरता है जगत।
मन उधारे ही उधरती है धारा।

बार घर के बार जो हैं हो रहे।
तो न सूबे के लिए ऊबे रहें।
क्यों पड़े तो मनसबों के मोह में।
पास मन के जो न मनसूबे रहें।

जान है जानकार लोगों की।
और सिरमौर माहिरों का है।
जौहरों का सदा रहा जौहर।
जौहरी मन जवाहिरों का है।

एक मन है भरा हुआ मल से।
एक मन है बहुत धुला उजला।
एक मन को कमाल है सिड़ में।
एक मन है कमाल का पुतला।

लोथ पर लोथ तो नहीं गिरती
लोभ होता उसे न जो धन का।
लाखहा लोग तो न मर मिटते।
मन अगर जानता मरम मन का।

एक मन है नरमियों से भी नरम।
एक मन की फूल जैसी है फबन।
एक मन की रंगतें हैं मातमी।
संग को है मात करता एक मन।

मान ईमान तो करे कैसे।
जो समझ बूझ बेईमान बने।
तो सके जान दुख दुखी कैसे।
मन अगर जान सब अजान बने।

भेद है तो भेद क्यों होता नहीं।
भेद रख कर भेद पहचाने गये।
जन न सनमाने गये सब एक से।
औ न सब मन एक से माने गये।

बात लगती बोलियाँ औ बिदअतें।
कब कहाँ किस ने सुखी बन कर सहीं।
क्यों सताये एक मन को एक मन।
एक मन क्या दूसरे मन सा नहीं।

निज दुखों सा गिने पराये दुख।
पीर को ठीक ठीक पहचाने।
तो न मन मानियाँ कभी होंगी।
जो मनों को समान मन माने।

तो सितम पर सितम न हो पाते।
तो न होती बदी बड़े बद से।
तो न दिल चूर चूर हो जाते।
चूर होता न मन अगर मद से।

सुख मिले सुख किसे नहीं होता।
हैं सभी दुख मिले दुखी होते।
मन सके मान या न मान सके।
हैं सकल मन समान ही होते।

नाम सनमान सुन नहीं पाता
देख मेहमान को सदा ऊबा।
मान का मान कर नहीं सकता।
मन गुमानी गुमान में डूबा।

है उसी एक की कला सब में।
किस लिए नीच बार बार नुचा।
काम लेवे न जो कमालों से।
तो कहाँ मन कमाल को पहुँचा।

है जगत जगमगा रहा जिससे।
जो मिला वह रतन न नर-तन में।
कर बसर जो सके न सरबस पा।
तो भरी है बड़ी कसर मन में।

जो न रँग जाय प्यार रंगत में।
तो उमग क्यों उमंग में आवे।
किस लिए धन समान तो उमड़े।
मन दया-बारि जो न बरसावे।

अनगिनत जग बिसात मोहरों का।
कौन मन के समान माहिर है।
वह समझ बूझ सोत का सर है।
ज्ञान की जोत का जवाहिर है।

चैन चौपाल चोज चौबारा।
चाव चौरा चबाव आँगन है।
चाल का चौतरा चतुरता कल।
चाह थल चेतना महल मन है।

है पुलकता लहू सगों का पी।
बाप को पीस मूस माँ का धन।
कब उठा काँप पाप करने से।
पाप को पाप मान पापी मन।

है कतरब्योंत पेच पाच पगा।
छल उसे छोड़ता नहीं छन है।
मौत का मुँह मुसीबतों का तन।
साँप का फन कपट भरा मन है।

क्यों कढ़े आँख से न चिनगारी।
क्यों न उठने लगे लवर तन में।
क्यों बचन तब बनें न अंगारे।
कोप की आग जब जली मन में।

यम नहीं हैं भयावने वैसे।
है न रौरव नरक बुरा वैसा।
है अधमता सभी भरी उस में।
है अधम कौन मन अधम जैसा।

टूट पड़ती रहे मुसीबत सब।
खेलना साँप से पड़े काले।
काल डाले सकल बलाओं में।
पर पड़े मन न कोप के पाले।

कुछ करेंगे रंग बिरंगे तन नहीं।
जायगी बहुरंगियों में बात बन।
रंग में उस के सभी रँग जायगा।
प्रेम रंगत में अगर रँग जाय मन।

छानते तो बड़े बड़े जंगल।
और गो पद समुद्र बन जाता।
डालते पीस पर्वतों को हम।
मन डिगाये अगर न डिग पाता।

डालते किस लोक में डेरा नहीं।
डर गये कोई नहीं कुछ बोलता।
धाक से तो डोल जाता सब जगत।
जो न डावाँडोल हो मन डोलता।

आँख में तो नये नये रस का।
बह न सकता सुहावना सोता।
चहचहे तो न कान सुन पाता।
जो दिखाता न रंग मन होता।

रंग जाता बिगड़ लताओं का।
पेड़ प्यारा हरा बसन खोता।
फूल रंगीनियाँ न रह पातीं।
रंग लाता अगर न मन होता।

जीभ रस-स्वाद तो नहीं पाती।
तो पिरोती न लेखनी मोती।
मोहती नाक को महक कैसे।
जो न मन की कुमक मिली होती।

रख सकें आन बान जो अपना।
हैं हमें मिल सके नहीं वैसे।
सामने झुक गये हठीले सब।
मन हठी ठान ले न हठ कैसे।

चाँद सूरज चमक दमक खो कर।
जाँयगे बन बनाय बेचारे।
जोत मन की न जो रहे जगती।
तो सकेंगे न जगमगा तारे।

तो रुचिरता कहाँ रही उस में।
रुचि हितों में रहे न जो पगती।
तो भले का कहाँ भला मन है।
जो भलाई भली नहीं लगती।

हो सकेगा कुछ नहीं काया कसे।
जो पराया बन नहीं पाया सगा।
योग जप तप रंगतों में क्या रँगे।
जो न परहित रंग में मन हो रँगा।

मूल उस को कमाल का समझे।
छोड़ जंजाल जाप का जपना।
सोच अपना बिकास अपना हित।
मन जगत को न मान ले सपना।

है अगर घट में नहीं गंगा बही।
कौन तो गंगा नहा कर के तरा।
तो न होवेंगे बिमल जल से धुले।
है अगर मन में हमारे मल भरा।

है बड़े सुन्दर सुरों की संगिनी।
बज रही है भाव में भर हर घड़ी।
रस बरस कर हैं सुरत को मोहती।
बाँसुरी मन की सुरीली है बड़ी।

बादलों में हैं अनूठी रंगतें।
इन्द्रधनु में हैं निराली धारियाँ।
है नगीना कौन सा तारा नहीं।
हैं कहाँ मन की न मीनाकारियाँ।

चाह बिजली चमक अनूठी है।
श्याम रंग में रँगा हुआ तन है।
है बरसता सुहावना रस वह।
मन बड़ा ही लुभावना घन है।

है वही सुन्दर सराहे मन जिसे।
हैं जगत में सब तरह की सूरतें।
मन अगर ले मान मन दे मान तो।
देवता हैं मन्दिरों की मूरतें।

है अगर मानता नहीं मन तो।
कौन नाना व कौन मामा है।
मन कहे और मान मन ले तो।
बाप है बाप और माँ, माँ, है।

है जहाँ चाहता वहीं जाता।
कौन है दौड़ धूप में ऐसा।
बेग वाला बहुत बड़ा है वह।
है पवन बेग में न मन जैसा।

है कपट काटछाँट का पुतला।
छूट औ छेड़छाड़ का घर है।
छैलपन है छलक रहा उस में।
मन छिछोरा छली छछूँदर है।

बात करता कभी हवा से है।
वह कभी मंद मंद चलता है।
खूब भरता कभी छलाँगें है।
मन कभी कूदता उछलता है।

मूँद आँखें क्या अँधेरे में पड़े।
जो लगाये है समाधि न लग रही।
खोल आँखें मन सजग कर देख लो।
है जगतपति जोत जग में जग रही।

अनमने क्यों बने हुए मन हो।
नेक सन्देह है न सत्ता में।
कह रहे हैं हरे भरे पौधो।
हरि रमा है हरेक पत्ता में।

मतलबी पालिसी-पसन्द बड़ा।
बेकहा बेदहल जले तन है।
है उसे मद मुसाहिबी प्यारी।
साहिबी से भरा मनुज-मन है।

पाक पर-दुख-दुखी परम कोमल।
हित धुरा, प्यार-जोत-तारा है।
है दया-भाव का दुलारा वह।
संत मन संतपन सहारा है।

है सुधा में सना हलाहल है।
फूल का हार साँप काला है।
है निरा प्यार है निरा अनबन।
नारि का मन बड़ा निराला है।

है खिला फूल, लाल अंगारा।
बाग सुन्दर बड़ा भयानक बन।
काठ उकठा हरा भरा पौधा।
है गरम है बड़ा नरम नर-मन।

है बड़ा ही सुहावना सुन्दर।
है उसी का कमाल भोलापन।
लोक के लाड़-प्यार-वालों का।
है बड़ा लाड़-प्यार-वाला मन।

क्यों न उस पर वार दें लाखों टके।
है जगत में दूसरा ऐसा न धन।
है निराला लाल आला माल है।
गोदियों के लाल का अनमोल मन।

हैं उसी से भलाइयाँ उपजी।
लोक का लाभ है उसी का धन।
कब न जन-हित रहा सजन उस का।
है सुजनता भरा सुजन का मन।

है बदी बीज बैर का पुतला।
पाप का बाप साँप का है तन।
है छुरा धार है धुरा-छल का।
है बहुत ही बुरा कुजन का मन।

देख करके और को फूला फला।
रह सका उसका नहीं मुखड़ा हरा।
कीच तो उसने उछाला ही किया।
नीच का मन नीचपन से है भरा।

वह अनूठा बसंत जैसा है।
है बड़ा ही सुहावना उपवन।
चाँद जैसा चमक दमक में है।
है खिले फूल सा सुखी का मन।

भोर का चाँद साँझ का सूरज।
है लगातार दग्ध होता बन।
है कमलदल तुषार का मारा।
बहु दुखों से भरा दुखी का मन।

पा समय मोम सा पिघलता है।
फूल है प्यार रंग में ढाला।
है मुलायम समान माखन के।
है दयावान मन दयावाला।

है सुफल भार से झुका पौधा।
है बिमल वारि से बिलसता घन।
दीनहित के लिए दयानिधि का।
है बड़ा दान दानियों का मन।

दिल उसे दे दें मगर उस से कभी।
एक मूठी मिल नहीं सकता चना।
जान देगा पर न देगा दान वह।
सूमपन में सूम का मन है सना।

वह कभी काल से नहीं डरता।
त्रास यमराज का उसे कैसा।
है बना सूर, सूर मन से ही।
कौन है सूर सूर-मन जैसा।

कर सकेगा और का कैसा भला।
जो भलाई में लगाया तन न हो।
हो सकेगा तो न पूरा हित कभी।
जो भरा हित से पुरोहित मन न हो।

है अबल के लिए बड़ा बल वह।
धाक गढ़ आनबान देरा है।
धीरता धाम धावरहर धुन का।
बीर-मन बीरता बसेरा है।

है गगन तल में हवा उस की बँधी।
धाक उसकी है धरातल में धँसी।
कौन साहस कर सका इतना कभी।
साहसी मन ही बड़ा है साहसी।

आँख में सुरमा लगाया है गया।
है घड़ी की होठ पर न्यारी फबन।
भूलती हैं चितवनें भोली नहीं।
तन हुआ बूढ़ा हुआ बूढ़ा न मन।

तो भले भाव के लिए वह क्यों।
बारहा जाय जी लगा जाँचा।
हो मगन देख लोक-हित-घन तन।
मन अगर मोर सा नहीं नाचा।

है बड़ी भूल भाव में डूबा।
पी कहाँ नाद जो नहीं भाया।
जाति-उपकार-स्वाति के जल का।
मन पपीहा अगर न बन पाया।

है बड़ा भाग जो बड़े हों हम।
सब भले रंग में रँगा हो तन।
दुख दिखाये न दुखभरी सूरत।
सुख कमल मुख भँवर बना हो मन।

तब भलाई भली लगे कैसे।
भूलता जब कि तोर मोर नहीं।
लोकहित चाव चन्द्रमा का जब।
मन चतुर बन सका चकोर नहीं।

जो गया भूल देख भोलापन।
चौगुना चाव क्यों न तो करता।
मुखकमल भावरस भरा पाकर।
मन-भँवर क्यों न भावँरें भरता।

हो गया है हवा, हवस में फँस।
बह गया बदहवास बन बौड़ा।
हो सका दूर दुख नहीं उसका।
मन बहुत दूर दूर तक दौड़ा।

आम वैसा कहाँ रसीला है।
चाँद कब रस बरस सका ऐसा।
कर रसायन मिली जवानी कब।
रस कहाँ है जवान-मन जैसा।

मानता हो न जब कही मेरी।
और करता सदा किनारा हो।
अनमने तब न हम रहें कैसे।
मन हमारा न जब हमारा हो।

कौन सा पद मिला नहीं उससे।
कौन सा सुख गया नहीं भोगा।
फिर करे मोल-जोल क्यों कोई।
मोल क्या मन अमोल का होगा।

प्यार का प्यार जब न हो उस को।
जब न हित का उसे सहारा हो।
तब हमें मान मिल सके कैसे।
मन न जब मानता हमारा हो।

कब निछावर हुआ न वह उस पर।
धन बराबर कभी न तन के है।
है रतन कौन इस रतन जैसा।
कौन सा मणि, समान मन के है।

तब न कैसे और भी कस जायगा।
जब कि सन की गाँठ में पानी पड़ा।
तब कठिन से भी कठिन होगा न क्यों।
मन कठिन कठिनाइयों में जब पड़ा।

भर गई हैं खुटाइयाँ जिस में।
भाव उस में भले भरोगे क्या।
हैं बुरे कब बुराइयाँ तजते।
मन बुरा मान कर करोगे क्या।

हैं कराती काम वे बातें नहीं।
जो जमाये से नहीं जी में जमें।
मान करके जो न मन की ही चलें।
मिल सके ऐसे न मन वाले हमें।

कम न अपमान हो चुका जिन का।
हित उन्हें मान क्यों नहीं लेते।
बात यह मान की तुम्हारे है।
मन उन्हें मान क्यों नहीं देते।

जो बनाये जाँय बिगड़े काम सब।
बात बिगड़ी जायगी कैसे न बन।
माल मनमाना उसे मिल जाय तो।
क्यों न मालामाल हो पामाल मन।

चाहतें तंग हैं बहुत होती।
है बुढ़ापा तरंग ही तन में।
रंग ही है न ढंग ही है वह।
अब न है वह उमंग ही मन में।