Last modified on 2 अप्रैल 2014, at 15:06

कुछ कलेजे / हरिऔध

Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:06, 2 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मोम-माखन सा मुलायम है वही।
प्यार में पाया उसी को सरगरम।
है उसी में सब तरह की नरमियाँ।
फूल से भी माँ-कलेजा है नरम।


प्यार की आँच पा पिघलने में।
माँ-कलेजा न मोम से कम है।
वह निराली मुलायमीयत पा।
फेन से, फूल से, मोलायम है।

एक माँ को छोड़ ममता मोह में।
है किसी का मन न उस के माप का।
सब हितों से उर उसी का है भरा।
प्यार से पुर है कलेजा बाप का।

भेद है बाप-माँ-कलेजे में।
तर बतर एक दूसरा तर है।
एक में कुछ कसर असर भी है।
दूसरा बेकसर सरासर है।

काम का बाप का कलेजा है।
माँ कलेजा मया धरोहर है।
एक है प्यार का बड़ा झरना।
दूसरा प्यार का सरोवर है।

प्यारवाला है कलेजा बाप का।
माँ कलेजा प्यार से भरपूर है।
जो रसीला आम मानें एक को।
दूसरा तो रसभरा अंगूर है।

माँ कलेजा दूध से है तरबतर।
है कलेजा बाप का हित से हरा।
है निछावर एक होता प्यार पर।
दूसरा है प्यार से पूरा भरा।

एक से माँ बाप के हैं उर नहीं।
एक सी उन में न हैं हित की तहें।
है अगर वह फूल तो यह फेन है।
मोम उस को औ इसे माखन कहें।

जनमने का एक ही रज-बीज से।
कौन से सिर पर गया सेहरा धरा।
एक भाई का कलेजा छोड़ कर।
है कलेजा कौन सा भायप भरा।

प्यार की जिसमें न प्यारी गंध है।
वह कमल जैसा खिला तो क्या खिला।
चाहना उस से भलाई भूल है।
जिस कलेजे में न भाईपन मिला।

प्यार का दिल क्यों न तो हिल जायगा।
भाइयों से जो न भाई हों हिले।
तो मिलाने से मिलें क्यों दूसरे।
जो न टुकड़े हों कलेजे के मिले।

वह कलेजा नहीं सगे का है।
चूकता जो रहा भलाई में।
भूल से भूल है बड़ी कोई।
हों भले भाव जो न भाई में।

है किसी काम का न वह भायप।
है गया भूल जो कमाई में।
क्यों भरा भेद तो कलेजे में।
हों अगर भेद-भाव भाई में।

चुहचुहाते हुए सहज हित का।
है लबालब भरा हुआ प्याला।
है कलेजा किसी बहिन का क्या।
है खिली प्यार-बेलि का थाला।

माँ कलेजे से निकल हित-रंग में।
जो निराले ढंग से ढलती रही।
वह बड़ी नायाब धारा नेह की।
है बहिन के ही कलेजे में बही।

लग गये जिस के लगी ही लौ रहे।
वह लगन सच्ची, वही दिखला सका।
एक जिस से दो कलेजे हो सके।
प्यार वह, प्यारी-कलेजा पा सका।

डूब करके चाहतों के रंग में।
प्रीति-धारा में परायापन बहा।
हित उसी में घर हमें करते मिला।
प्यार-घर घरनी कलेजा ही रहा।

हित-महक जिस की बहुत है मोहती।
जो रहा जनचित-भँवर का चाव थल।
पा सका जिस से बड़ी छबि प्यार-सर।
है कलेजा बेटियों का वह कमल।

जो रहा है जगमगा हित-जोत से।
चोप-कंगूरा सका जिस से बिलस।
प्यार का जिस पर मिला पानिप चढ़ा।
है कलेजा बेटियों का वह कलस।

लाभ-पुट से लुभावनापन ले।
रंग है लाल प्यार लोहू का।
लालसा से लसे हितों का थल।
है कलेजा किसी पतोहू का।

है उसी में पूतपन की रंगतें।
हित रसों का है वही सुन्दर घड़ा।
प्यार उस का ही दुलारा है बहुत।
है कलेजा पूत का प्यारा बड़ा।

बाप-माँ-मान का हुआ अनभल।
हित हुआ चूर, सुख गया दलमल।
पा सका प्यार पल न कल जिस से।
है कलेजा कपूत का वह कल।

ऐब लोहा हुआ हुनर सोना।
छू जिसे रिस हुआ अछूता रस।
पाक है लोक-प्यार से पुर है।
है कलेजा सपूत का पारस।