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पवन / रजत कृष्ण

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मनुष्य के
कण्ठ से
पहला शब्द फूटा
तो उसे
पेड़ पक्षी पर्वत झील
झरने और समुद्र के हृदय तकने
पहुँचाया पवन ने ।

मनुष्य ने फूँका शंख
तो पवन ने
उसे नाद दी ।
बनाया ढोल-मृदंग
तो थाप दी ।

पवन ने दिशा दी
उस पहले तीर को
जिसे मनुष्य ने
सिरजते ही
छोड़ दिया था शून्य में ।

मनुष्य की राह
लम्बी होती गई
थकान से टूटने लगा वह
तो पवन ने उसे
घोड़े पर बैठाया
जिसकी टापों की गूँज में
दर्ज है
मनुष्य की सुदीर्घ गाथा ।

मनुष्य ने
आसमान में उड़ने
यान की कल्पना की
तो पवन उसे
पीठ पर साजा ।

सोचा चाँद पर जाने की
मंगल तो
जीवन बीज ढूँढ़ लाने की
तो वह
हँसी-ख़ुशी घुमा लाया।

सड़क पर गतिमान
तुम्हारी हमारी साईकल को
पवन की दरकार
पवन के लाड़-दुलार से
घूमती है
हमारे बच्चों की फिरकनी
थिरकती है कठपुतली

पवन की तरंग को
इधर खूब साधा है हमने
अभी-अभी मैने
घर बैठे ही
सुदूर बस्तर के
अपने कवि मित्र से
बात की
उसके सुख दुख को जाना ।

बस एक बटन दबाया
और स्वयं को
विश्व-ग्राम में
बड़ा पाया।

मनुष्य के पत्थर बन जाने में
कोई बहुत वक़्त नहीं लगता
यह सिर्फ़ पवन जानता है
जो हमारी साँसो को
नम रखता
और जीवन की जड़ मे
रंग-गंध सींचता है ।