Last modified on 22 अप्रैल 2014, at 11:54

चौकन्ने मनुष्य / निरंजन श्रोत्रिय

Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:54, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

किरच-किरच बिखरे टुकड़ों में
पहचानना मुश्किल अब जीवन का चेहरा

पीढि़यों के उत्सर्ग से पनपा था वह जस-तस
नहीं थाम सकी उसे हमारी हथेलियों की फिसलन
और सरकता गया वह निःशब्द हमारी दुनिया से बाहर
भरोसा

दरवाजे पर हुई हर दस्तक भर जाती दहशत से हमें
बस में रखी ज्वार की पोटली को भेदती निगाहें सशंक
हर समर्पण की पीठ में टटोलते रीढ़ स्वार्थ की
कोई बड़ा प्रयोजन प्रगाढ़ आलिंगन की ऊष्मा में
नापते हैं भिखारी के कोढ़ का प्रतिशत सिक्का टपकाने से पहले
फेंक देते नज़र बचा कर सहयात्री द्वारा दी गई मूंगफली भी
फोन पर आ रही आत्मीय आवाज़ में दिखती हमें एक
दबी हुई आँख

तमाम दृश्यों शब्दों और ध्वनियों का अर्थ
एक है हमारे लिये
धुंध को मानकर धुआँ
खोजते आग मूल में
मृत विश्वास को लादे
अपनी झुकी हुई रीढ़ पर

दुनियादारी की भाषा में हम हैं
समझदार सावधान और चौकन्ने मनुष्य
बावजूद इन तमाम बदतमीजि़यों के!