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गुमशुदगी / विपिन चौधरी

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मुझे मेरे होने का उस वक्त तब तक पता नहीं चल पाया था
जब तक एक नई-नवेली नाड़ी ने मेरी आत्मा को खोद-खोद कर
उसके भीतर अपना घर नहीं बना डाला
जीवन की एक मैराथनी दौड़ लगभग समाप्ति पर थी
पर मेरे पांव अब भी दूरियों की मांग कर रहे थे
जीवन के इस लाजिमी हक में
मेरी वह पसंद शामिल नहीं थी
जिसकी तलाश में मैंने कई नये खुदा तराश डाले थे
खुशी की पहली उड़ान के साथ
ऊब का आखिरी हिस्सा भी प्रेम के
पहले पड़ाव में ही मैने देख लिया था
बिना आवाज के कोई मेरी जिंदगी से बाहर हो रहा था
और मैं उसके पदचाप की बेवफाई पर रोते-बिलखते
अपने और नजदीक आ गयी थी
सच लगे तो टिके रहो
झूठ मानो तो जाने दो
अपनी यादों के इर्द-गिर्द सात फेरे लगा कर
उसे मलमल के लाल कपड़े में समेट
रख दिया है
और जब-जब वर्तमान के ताप में बैठ
अतीत के दो पत्थरों को रगड़
मैंने वर्तमान का चेहरा देखना चाहा तो
सामने वही बन्दर-बांट दिखाई दी
जिससे हर मोड़ पर कन्नी काटती आई थी मैं
उसी वक्त मैंने अपने हाथों से
अपना पता गुम कर दिया
दुनिया में जमे रह कर
गुमशुदगी का खूबसूरत नाटक
कई लाइलाज बीमारियों का सटीक हल ही तो है