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सात / नंदकिशोर सोमानी ‘स्नेह’

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अबै बठै नीं गाया जावै
मंगळ-गीत,
नीं होवै जलमदिन री पारट्यां,
नीं राखै अबै बठै कोई
एकादसी रो बरत
अर नीं बणै
तीज-तिंवार माथै कोई मीठो!
 
अबै बठै दिखै फगत
धूड़ अर माटी सूं भर्योड़ा आसराम
अंधारै खुणै मांय
ऊंधी टंग्योड़ी चमचेड़ां
कळाबाजी खावता ओपरा पंखेरू
 
अबै बठै
इसो कीं भी नीं है
जिण मायं सोध सकां आपां कोई आस।
 
पण फेरूं ई वै जुड़्योड़ा है
लोगां रै ऊंडै अंतस सूं
जका चावै- निरांत।
जका ई सुण सकै
इण बूढी होयोड़ी भींतां रा हेला
पून रै सागै खड़-खड़ावतै सूकै पानड़ां रो संगीत।
 
साम्हीं ऊभी बूढी भींतां माथै
आपां क्यूं नीं बांच सकां आपां
तावड़ै, आंधी अर बिरखा री
लिख्योड़ी आ कविता।