ओ साँस! समय जो कुछ लावे
सब सह जाता है:
दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन
कहा-अनकहा रह जाता है।
बहू हो गयी ओझल:
नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर
बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली:
वेणी आँचल से रेती पर
झरती बूँदों की लहर-डोर थामे, ओ मन!
तू बढ़ता कहाँ जाएगा?