( पखावज वादक स्वामी पागलदास के लिए, जिनका 20 जनवरी 1997 को अयोध्या में देहावसान हो गया)
अयोध्या में बसकर
उदास रहते थे पागलदास
यह बताया उस मल्लाह ने
जिसने सरयू में प्रवाहित किया उन्हें।
मैंने पूछा-
आखिर क्यों उदास रहते थे पागलदास
अयोध्या में बसकर भी।
उसने कहा-
कारण तो बता सकते हैं वे ही
जो जानते हों पागलदास को ठीक से
मैं तो आते-जाते सुनता था
उनका रोदन
जिसे छुपाते थे वे पखावज की थापों में।
मैंने कहा, मुझे उनके स्थान तक ले चलो
उनके किसी जानकार से मिलाओ।
मैंने पागलदास के पट्ट शिष्यों से पूछा
क्या अयोध्या में बसकर
सचमुच उदास रहते थे पागलदास।
शिष्य कुछ बोले-बासे नहीं
बस थाप देते रहे,
मेरे आग्रह करने पर
उन्होंने मुझे दिखाया उनका कक्ष
जहाँ बंद हो गया था आना-जाना डोलना
पागलदास के पखावज भी भूल गए थे बोलना।
मैं अयोध्या में ढूंढ़ता रहा
पागलदास के जानकारों को
और लोग उनका नाम सुनते ही
चुप हो
बढ़ जाते थे।
बहुत दिन बीतने पर
मिले पागलदास के संगी
जो कभी संगत करते थे उनके साथ
उन्होंने मुझसे पूछा -
क्या करेंगे जानकर कि
अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास रहते थे पागलदास।
उन्होंने कहा-
क्यों उदास हैं आप बनारस में
बुद्ध कपिलवस्तु में
कालिदास उज्जयिनी में
फसलें खेतों में
पत्तियाँ वृक्षों पर, लोग दिल्ली में, पटना में
दुनिया जहान में क्यों उदास हैं
आप सिर्फ यही क्यों पूछ रहे हैं
कि अयोध्या में बसकर भी क्यों उदास थे पागलदास।
मैंने कहा -
मुझे उनकी उदासी से कुछ काम नहीं
मुझे बुद्ध, कालिदास या लोगों की उदासी से
कुछ लेना-देना नहीं
मैं तो सिर्फ बताना चाहता था लोगों को
कि इस वजह से अयोध्या में बसकर भी
उदास रहते थे पागलदास।
उन्होंने बताया-
पागलदास की उदासी की जड़ थे पागलदास
मैंने कहा यह दूसरे पागलदास कौन हैं
क्या करते हैं।
उन्होंने बताया-
जैसे अयोध्या में बसती है दूसरी अयोध्या
सरजू में बहती है दूसरी सरजू
वैसे ही पागलदास में था दूसरा पागलदास
और दोनों रहते थे अलग-थलग और
उदास।
जो दूसरे पागलदास थे
वे न्याय चाहते थे
चाहते थे रक्षा हो सच की
बची रहे मर्यादा अयोध्या की
सहन नहीं होता था कुछ भी उल्टा-सीधा
क्रोधी थे पहले पागलदास की तरह
सिर्फ अपने भर से नहीं था काम-धाम
पहले पागलदास की तरह उदास होकर
बैठ नहीं गए थे घर के भीतर।
मैंने कहा-
अन्याय का विरोध तो होना ही चाहिए
होनी ही चाहिए सच की रक्षा
पर उदासी का कारण तो बताया नहीं आपने।
उन्होंने कहा-
जो पागलदास
सच की रक्षा चाहते थे
चाहते थे न्याय
वध किया गया उनका
मार दिया गया उनको घेर कर उनके ही आंगन में
एकान्त में नहीं
उनके लोगों की मौजूदगी में
और पहले पागलदास को छोड़ दिया गया
बजाने के लिए वाद्य
कला के सम्वर्धन के लिए।
दूसरे पागलदास की हत्या से
उसको न बचा पाने के संताप से
उदास रहने लगे थे पागलदास
दूसरे पागलदास के न रहने पर
उनको संगत देने वाला बचा न कोई
उन्होंने छोड़ दिया बजाना, भूल गए रंग भरना
तज गए समारोह, भूल गए कायदा, याद नहीं रहा भराव का ढंग
बचने लगे लोगों से, लोम-विलोम की गुंजायश नहीं रही।
बहुत जोर देने पर कभी बजाने बैठते तो
लगता पखावज नहीं
अपनी छाती पीट रहे हैं।
इतना कह कर वे चुप हो गए
मुझे सरजू पार कराया और बोले-
जितना जाना मैंने
पागलदास की उदासी का कारण
कह सुनाया
अब जाने सरजू कि उसके दक्षिण तरफ
बस कर भी क्यो उदास रहे पागलदास।
रचना तिथि- 21-09-1997