Last modified on 19 मई 2014, at 20:28

संघर्ष / मिगुएल हेरनान्देज़

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:28, 19 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मिगुएल हेरनान्देज़ |अनुवादक=उदय ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं, हाँ मैं, जो यह सोचता था कि
यह उजाला इस बार मेरा है
मैंने ख़ुद को सिर के बल अन्धेरे में गिरते हुए देखा

अपनी बेइन्तहा प्यास से जूझते हुए जो
इस सुबह की मटमैली चीज़ों के लिए बिलकुल नहीं थी
सब कुछ इतना विराट इतना विस्तृत
हृदय की अन्धी धड़कनों से भरा हुआ

मैं एक जेल हूँ, एक क़ैदख़ाना जिसकी खिड़कियाँ
एक विराट चीख़ते हुए सन्नाटे की ओर खुलती हैं

मैं एक खुली हुई खिड़की हूँ
टोहता हुआ कि
अन्धेरे में कोई ज़िन्दगी कहीं क़रीब से गुज़रती है क्या ?

ओह! लेकिन इस संघर्ष में फिर भी कोई सूरज की
दूर, कहीं रोशनी की एक लकीर है
अपनी परछाईं अपने पीछे छोड़ती हुई जो .....

पल भर में ग़ायब हो जाती है ।