चीर भरा पाजामा, लट लट कर गलने से
छेदोंवाला कुर्त्ता, रूखे बाल, उपेक्षित
दाढ़ी-मूँछ, सफाई कुछ भी नहीं, अपेक्षित
यह था वह था, कौन रूके ठहरे, ढलने से
पथ पर फ़ुर्सत कहाँ। सभा हो या सूनापन
अथवा भरी सड़क हो जन-जीवन-प्रवाह से,
झिझक कहीं भी नहीं, कहीं भी समुत्साह से
जाता है। दीनता देह से लिपटी है, मन
तो अदीन है। नेत्र सामना करते हैं, पथ
पर कोई भी आये। ओजस्वी वाग्धारा
बहती है, भ्रम-ग्रस्त जनों को पार उतारा
करती है, खर आवर्तों में ले लेकर मथ
देती है मिथ्याभिमान को। यही त्रिलोचन
है, सब में, अलगाया भी, प्रिय है आलोचन।