बच्चे
अपने खिलौनों में
छोड़ जाते हैं अपना खेलना
निश्छल शैशव
कि खिलौने
जीवंत और जानदार
लगते हैं बच्चों की तरह।
बच्चों के
अर्थहीन बोलों में होता है
जीवन का अर्थ
ध्वनि-शोर में रचते हैं
जीवन का भाष्य
जिसे रचती है आत्मा।
बच्चों की
गतिहीन गति में होती है
सब कुछ छू लेने की आतुरता
उनके तलवों से
धरती पर छूट जाती है
उनके आवेग की गति
कि उनके सामने न होने पर भी
ये चलते हुए लिपट जाते हैं
यहाँ-वहाँ से।
बच्चों के पास
होती है अपनी एक विशेष ऋतु
जिसमें वे खिलते हैं, खेलते हैं
और फलते हैं
हम सबके मधुबन के लिए।