कृष्णबिहारी ‘नूर’ का जन्म लखनऊ के ग़ौसनगर मुहल्ले में बाबू कुंजबिहारीलाल श्रीवास्तव के यहाँ 8 नवंबर, 1925 को हुआ। जून 1947 में उनका विवाह शकुन्तला देवी से हुआ। 19 जुलाई, 1982 को नूरसाहब की धर्मपत्नी का निधन हुआ। उनका दाह-संस्कार कानपुर में गंगा किनारे किया गया। धर्मपत्नी के निधन ने नूरसाहब में टूटन तो पैदा की, लेकिन उनके भीतर तेज़तर होते जा रहे शायरी के दरिया को और प्रवाहमान बनाया। 30 मई 2003 को प्रातः 10 बजे ग़ाज़ियाबाद के यशोदा हास्पिटल में आँत के आपरेशन के दौरान नूरसाहब का निधन हो गया।
दरअस्ल वे ग़ाजियाबाद में एक कविसम्मेलन में शामिल होने के लिए लखनऊ से ट्रेन द्वारा आ रहे थे। ट्रेन के ए.सी. कोच में उन्हें ऊपर की बर्थ आवंटित हुई थी। भोर में टायलेट जाने के लिए जब वे बर्थ से उतर रहे थे, तो रॉड हाथ से छूट गयी और फ़र्श पर गिर पड़े। ग़ाज़ियाबाद में नूरसाहब के दो शिष्य डा. कुँअर बेचैन जी और श्री गोविन्द गुलशन रहते हैं। ग़ाज़ियाबाद पहुँचकर उन्होंने गुलशन जी को ़फ़ोन किया। गुलशन जी तुरन्त वहाँ पहुँचे और उन्हें घर ले आये तथा पड़ोस में ही एक चिकित्सक से दवा दिला दी। परिणामतः उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ और रात को उन्होंने कविसम्मेलन में भाग लिया। नूरसाहब ने उन्हीं दिनों में एक ग़ज़ल कही थी, जो देशभर में काफ़ी चर्चित हुई। उसके दो शेर प्रस्तुत हैं-
अपने होने का सुबूत और निशाँ छोड़ती है
रास्ता कोई नदी यूँ ही कहाँ छोड़ती है
ज़ब्ते-ग़म खेल नहीं है अभी कैसे समझाऊँ
देखना मेरी चिता कितना धुआँ छोड़ती है
कविसम्मेलन में इस ग़ज़ल को पढ़ने के लिए कई कवियों और श्रोताओं ने उनसे अनुरोध किया, लेकिन न जाने क्यों, नूरसाहब ने वहाँ यह ग़ज़ल पढ़ने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें ‘उस पार’ से कोई बुला रहा था। कविसम्मेलन के बाद वे गुलशन जी के घर पर ही ठहरे। अगले दिन उनके पेट में दर्द हुआ तो उन्हें फिर चिकित्सक के पास ले जाया गया। लेकिन, इस बार स्थिति गम्भीर थी। चिकित्सक ने नूरसाहब को तुरन्त किसी बड़े अस्पताल ले जाने की सलाह दी। परिणामतः उन्हें ग़ाज़ियाबाद के प्रसिद्ध यशोदा अस्पताल ले जाया गया। वहाँ कुछ आवश्यक जाँचें करने के बाद डाक्टरों ने आँत में गैंग्रीन की शिकायत बताते हुए परामर्श दिया कि 24 घण्टे के भीतर आपरेशन आवश्यक है, वरना जीवन को ख़तरा हो सकता है। उस वक़्त अस्पताल में नूरसाहब के साथ डा. कुँअर बेचैन जी और गुलशन जी थे। नूरसाहब को भर्ती करने के बाद आपरेशन कर दिया गया। अगले दिन नूरसाहब के सुपुत्र कुँवर अरुण श्रीवास्तव भी सूचना पाकर अस्पताल पहुँच गये। लगभग दो सप्ताह तक डाक्टरों ने मशक्कत की, लेकिन नूरसाहब को बचाया नहीं जा सका। अन्ततः वे ‘अपनों’ की आँखों को आँसू सौंपकर इस नश्वर संसार से विदा हो गये। वहीं पर हिण्डन नदी के किनारे उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, पंजाब से लेकर बंगाल तक जितने मुशायरे होते हैं, उनमें नूरसाहब बुलाये जाते रहे हैं। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को ही नयी रोशनी नहीं दी, बल्कि वे हिन्दी ग़ज़ल के भी आधार स्तम्भ हैं। नूरसाहब की आरम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। उसके बाद अमीनाबाद स्थित स्कूल में नाम लिखवाया गया, जहाँ से उन्होंने हाईस्कूल किया। उन्होंने बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त की। बाद में लखनऊ में ही आर.एल.ओ. (रिटर्न्ड लैटर आफ़िस) में नौकरी मिल गई। नूरसाहब यहाँ से 30 नवम्बर 1984 को सहायक प्रबन्ध्क पद से सेवानिवृत्त हुए। श्री कुंजबिहारी लाल श्रीवास्तव की छः सन्तानोंµ चार पुत्रियाँ एवं दो पुत्रµ में कृष्णबिहारी ‘नूर’ का तीसरा स्थान है। नूरसाहब के भी छः सन्तानेंµ पाँच पुत्रियाँ एवं एक पुत्रµ हैं। नूरसाहब जनाब फ़ज़्ल नक़वी के शिष्य थे।
नूर साहब के शिष्य:
- गुलशन बरेलवी (लखनऊ)
- डा. कुँअर बेचैन (ग़ाज़ियाबाद)
- डा. मधुरिमा सिंह (लखनऊ)
- देवकीनंदन ‘शांत’ (लखनऊ)
- इम्तियाज़ अली ‘राज़’ भारती (लखनऊ)
- ज्योति ‘किरण’ सिन्हा (लखनऊ)
- कृष्णकुमार ‘नाज़’ (मुरादाबाद)
- गोविंद ‘गुलशन’ (ग़ाज़ियाबाद)
- दीपक जैन ‘दीप’ (गुना)
- अरविंद ‘असर’ (म.प्र.)
- हमीदुल्ला ख़ाँ ‘क़मर’ (लखनऊ)
- रवींद्रकुमार ‘निर्मल’ (लखनऊ)
- ओमशंकर ‘असर’ (झाँसी)
- तुफ़ैल चतुर्वेदी
प्रकाशित कृतियाँ (ग़ज़ल एवं नज़्म-संग्रह):
- दुख-सुख (उर्दू)
- तपस्या (उर्दू)
- समंदर मेरी तलाश में है (हिंदी)
- हुसैनियत की छाँव में
- तजल्ली-ए-नूर
- आज के प्रसिद्ध शायर कृष्णबिहारी ‘नूर’ (संपादन-कन्हैयालाल नंदन)