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मोती / सुलोचना वर्मा

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मैं मरुथल की रेत-सी
गाती हूँ राग मियाँ की मल्हार
जिसमे करती हूँ ज़िक्र तुम्हारा
बड़े ही जतन से
गान्धार स्वर की मानिन्द

तुम हवा से बन जाते हो बवण्डर,
भींच लेते हो मुझे अपने दामन में
उकेरता है एक बहुआयामी अमूर्त रेखा-चित्र
रेगिस्तान की ज़मीं पर
हमारा यह सूफ़ी कत्थक बैले

जल उठता है रात का अन्धेरा
लिखता है मेरे दामन पर प्यार-पानी से
फिसलने लगते हैं गीत के बोल मेरे होठों से
और हो जाते हैं बन्द किसी सीपी में

सुनो हवा,
सावन के बाद जो आओ मुझसे मिलने
लगा लेना कान अपना सीपी में
और सुन लेना कजरी धीरे से
ढूँढ़ लेना मेरा वजूद उस सीपी में बन्द
मेरे शब्दों के मोती में